वैदिक संस्कृति का विकास कैसे हुआ ?

 

  • सिंधु सभ्यता के बाद का जीवन हमें वेदों के माध्यम से पता चलता है, इसलिये इसे वैदिक संस्कृति कहते हैं। चूँकि आर्यों को इस संस्कृति का संस्थापक माना जाता है, इसलिये इसे आर्य संस्कृति भी कहते हैं। यह एक ग्रामीण संस्कृति थी।
  • मैक्समूलर ने आर्यों का मूल निवास मध्य एशिया को माना है। • वैदिक काल को दो भागों ऋग्वैदिक (1500-1000 ई.पू.) तथा उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.) में विभाजित किया गया है।

ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. 1000 ई.पू.)

भारतीय आर्यों के संबंध में प्रथम जानकारी हमें ऋग्वेद से प्राप्त होती है। ऋग्वेद में आर्य शब्द का 36 बार उल्लेख मिलता है। ईरानी भाषा का ग्रंथ अवेस्ता और ऋग्वेद की अनेक बातों में समानता है। सिंधु आयों की सबसे प्रमुख नदी है जिसका ऋग्वेद में बार-बार उल्लेख है। उनके द्वारा उल्लिखित दूसरी नदी है सरस्वती जिसे ‘नदीतमा’ अर्थात सर्वश्रेष्ठ नदी कहा गया है। ऋग्वेद में गंगा का एक बार और यमुना का उल्लेख तीन बार हुआ है।

आर्यों के निवास स्थल के लिये सप्तसैंधव शब्द का प्रयोग किया गया है।

ऋग्वैदिककालीन नदियाँ

प्राचीन नाम आधुनिक नाम प्राचीन नाम आधुनिक नाम
वितस्ता झेलम   विपाशा व्यास
आस्किनी चिनाब सदानीरा गंडक  
परुष्णी   रावी   शत्रुद्रि   सतलज

राजनीतिक व्यवस्था

  • आर्यों की प्रशासनिक इकाई आरोही क्रम इस प्रकार थी- कुल, ग्राम, विश, जन।
  • कुल के प्रमुख ‘कुलप’, ग्राम के मुखिया ‘ग्रामणी’. विश के प्रधान ‘विशपति’ एवं जन (कबीला) के प्रमुख राजन कहलाते थे।
  • कबीले के प्रधान को सीमित अधिकार ही प्राप्त थे। संभवत: कबीले की आम सभा (समिति) राजन या राजा को चुनती थी।
  • सभा और समिति दोनों ऋग्वैदिक काल की जनतांत्रिक संस्थाएँ मानी जाती है, जो राजा को सलाह देती थी।
  • सभा श्रेष्ठ और संभ्रांत लोगों की संस्था थी और समिति सामान्य लोगों की। समिति का अध्यक्ष ‘ईशान’ कहलाता था। स्त्रियाँ सभा और समितियों में भाग ले सकती थीं।
  • दैनिक प्रशासन में कुछ अधिकारी राजा की मदद करते थे जिनमें सेनानी और पुरोहित प्रमुख थे।
  • जनता स्वेच्छा से राजा को उसका अंश दे देती थी। इस अंश को ‘बलि’ कहा गया।
  • ऋग्वेद में चरागाह या बड़े जत्थे के प्रधान को व्राजपति कहा जाता था।
  • ऋग्वेद दुर्गपति के लिये ‘पुरप’ तथा गुप्तचर के लिये ‘स्पश’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
  • ‘उग्र’ नामक अधिकारी अपराधियों को पकड़ने का कार्य करता था।
  • युद्ध में कबीले का नेतृत्व राजा करता था। युद्ध के लिये ऋग्वेद में ‘गविष्टि’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है- गायों की खोज।
  • ऋग्वेद के 7वें मंडल में ‘दसराज्ञ युद्ध’ का उल्लेख है जो परुष्णी (रावी) नदी के किनारे भरत जन एवं दस अन्य जनों के बीच हुआ था। इस युद्ध में भरत जन के प्रमुख सुदास की जीत हुई थी।
अथर्ववेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियाँ कहा गया है।

सामाजिक वर्गीकरण

  • ऋग्वेद के 10वें मंडल के पुरुषसूक्त में चतुर्वर्ण का उल्लेख है।
  • इसमें कहा गया है कि ब्राह्मण विराट पुरुष (ब्रह्मा) के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जंघा से तथा शूद्र पैरों से उत्पन्न हुए हैं।
  • समाज पितृसत्तात्मक था किंतु महिलाओं की स्थिति भी सम्मानजनक थी। स्त्रियाँ अपने पति के साथ यज्ञों में आहुति दे सकती थीं।
  • समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार या कुल थी, जिसका मुखिया पिता होता था, जिसे कुलप कहा जाता था।
  • नियोग प्रथा तथा विधवा विवाह का प्रचलन था, किंतु बाल विवाह, पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
  • आजीवन अविवाहित रहने वाली महिलाओं को अमाजू कहा जाता था।
  • ऋग्वेद में लोपमुद्रा, घोषा, अपाला, विश्ववरा जैसी विदुषी महिलाओं का उल्लेख है।
  • ऋग्वेद में वनस्पतियों से सोमरस बनाने की विधि का वर्णन है जो आर्यों का प्रिय पेय पदार्थ था।

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आर्थिक क्रियाकलाप

  • गाय और साँड़ की अत्यधिक चर्चा के कारण ऋग्वैदिक आर्यों को पशुचारक भी कहा जा सकता है।
  • गाय को सबसे उत्तम धन माना जाता था तथा इसे ‘अघन्या’ (न मारे जाने योग्य पशु) कहा गया है। घोड़ा एक महत्त्वपूर्ण पशुधन था।
  • ऋग्वेद आर्यों द्वारा धातु के रूप में सर्वप्रथम तांबे का प्रयोग किया गया।

धार्मिक विश्वास

  • इंद्र ऋग्वैदिक आर्यों के प्रमुख देवता थे। इंद्र (पुरंदर) पर सर्वाधिक 250 सूक्त हैं तथा इन्हें बादल का देवता माना गया है।
  • अग्नि का दूसरा स्थान है तथा इन पर 200 सूक्त हैं। अग्नि को मनुष्य और देवताओं के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने वाले देवता के रूप में पूजा जाता था। वरुण भी प्रमुख देवता थे जो कि ऋतु के नियामक थे।
  • ऋग्वेद में कुछ देवियों का भी उल्लेख है, जैसे- अदिति और उषा। किंतु ऋग्वैदिक काल में देवियों की प्रमुखता नहीं थी।
  • स्तुतिपाठ और यज्ञ-बलि उपासना की मुख्य रीति थी। इस युग में कर्मकांड का अभाव था।
  • पूषण ऋग्वैदिक काल में पशुओं के देवता थे जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता हो गए।

उत्तर वैदिक काल (1000 ई.पू.-600 ई.पू.)

उत्तर वैदिक काल से संबंधित जानकारी हमें सामवेद, यजुर्वेद,अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरण्यक और उपनिषद् से प्राप्त होती है।

इस काल में आर्यजनों का पंजाब से आगे गंगा-यमुना से लेकर सदानीरा (गंडक) तक विस्तार हो गया।

राजनीतिक संरचना

दिशा   उत्तरवैदिक शब्द   राजा का नाम  
पश्चिम प्रतीची   स्वराट  
पूर्व प्राची सम्राट  
उत्तर   उदीची विराट  
  • उत्तर वैदिक युग में पहली बार ‘राजत्व की दैवी उत्पत्ति की अवधारणा’ आई।
  • कर्मकांड के विधानों से राजा और भी प्रभावशाली बन गया। राजसूय यज्ञ, अश्वमेध यज्ञ तथा वाजपेय यज्ञ के माध्यम से राजा की शक्ति और महिमा बढ़ी।
  • राज्याभिषेक के समय राजसूय मध्य यज्ञ का अनुष्ठान किया दक्षिण जाता था।
  • इस युग में औपचारिक ढंग से करों का संग्रह होने लगा था तथा इसके संग्रह व संचालन के लिये ‘संग्रीहीतृ’ नामक अधिकारी होता था।

सामाजिक संगठन

  • उत्तर वैदिककालीन समाज, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र चार वर्णों में विभक्त था।
  • समाज पितृसत्तात्मक बना रहा तथा महिलाओं की स्थिति में तुलनात्मक रूप से गिरावट आई।
  • इस काल में गोत्र प्रथा प्रतिष्ठित हुई तथा एक गोत्र में विवाह को निषिद्ध किया गया।
  • आश्रम व्यवस्था का आरंभ हो गया था किंतु चौथा आश्रम अर्थात् संन्यास वैदिक युग में प्रतिष्ठित नहीं हुआ था।
  • ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य द्विज जातियों के रूप में जाने जाते थे तथा इन्हें यज्ञोपवीत धारण करने का अधिकार था।

आर्थिक जीवन

  • इस काल में कृषि मुख्य पेशा बन गई थी जिसे लोहे के उपयोग ने प्रोत्साहित किया। लोहे को ‘श्याम अयस’ कहा गया।
  • उत्तर वैदिक काल में हल को सीर और कृषिभूमि को सीता कहा जाता था।
  • उत्तर वैदिक लोग जौ के साथ-साथ गेहूँ और ‘चावल (ब्रीही)’ भी उपजाने लगे थे।
  • कृषि उत्पाद एवं पशुओं का व्यापार होता था। आदान-प्रदान के लिये वस्तु विनिमय प्रणाली ही प्रचलित थी।
  • चित्रित धूसर मृदभांड इस युग की मुख्य विशेषता है।

धार्मिक जीवन

  • ऋग्वैदिक देवता इंद्र का महत्त्व घटा तथा ‘प्रजापति’ रूप में प्रतिष्ठित हुए।
  • मुख्य देवता केउपासना की रीति में भारी परिवर्तन आया। यज्ञ आराधना की मुख्य पद्धति हो गई।
  • वैदिक काल के अंतिम दौर में यज्ञ के कर्मकांडों और पुरोहितों के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया हुई।
  • इस दौर में उपनिषदों का संकलन हुआ जिसमें कर्मकांड की निंदा की गई तथा सम्यक् विश्वास और ज्ञान पर बल दिया गया तथा ब्रह्म को एकमात्र सत्ता स्वीकार किया गया।
‘सत्यमेव जयते’ मुण्डकोपनिषद से लिया गया है। इस उपनिषद में यज्ञ की तुलना टूटी नाव से की गई है। ‘यम-नचिकेता संवाद’, ‘कठोपनिषद’ में है। गार्गी-याज्ञवलक्य संवाद ‘वृहदारण्यक उपनिषद’ में है।

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