खबरों में क्यों है?
इस 15 अगस्त को भारत अपनी स्वतंत्रता के 75 साल पूरे होने पर इसे अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है भारत की यह लोकतंत्र की यात्रा अद्वितीय रही है । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के वर्षों में दक्षिण एशिया में बहुत से देश साम्राज्यवाद से मुक्त हुए भारत भी उन्हीं देशों में से एक था उस वक्त आजाद होने वाले देशों में अपनी तरह की अलग-अलग समस्याएं विद्यमान है भारत भी कुछ समस्याओं से मुक्त नहीं है लेकिन अगर इसके सबसे बड़े स्तंभ लोकतंत्र की बात करें तो यह कहा जा सकता है कि भारत अपने लोकतंत्र को बचा पाने में सफल रहा है ।
लेकिन इतने विस्तृत देश के लिए क्या लोकतंत्र के स्थायित्व को एकमात्र उपलब्धि मान कर खुश होना चाहिए? क्या स्वतंत्रता के 75 साल में हमारा हासिल केवल लोकतंत्र का स्थायित्व है ? क्या भारत अपने नागरिकों को वह दे पाया जिसका सपना इसके संविधान के निर्माताओं और आजादी के लिए अपना जीवन आहूत कर देने वाले वीर सपूतों ने देखा था ?
आजादी के समय किस तरह के भारत का सपना देखा गया था ?
स्वतंत्रता के बाद देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भारत के लोकतंत्र को चुनने को लेकर और इसके रास्ते में आने वाली चुनौतियों को देखते हुए 15 अगस्त 1947 को अपने भाषण में कहा था कि “एक लोकतंत्र के तौर पर हम कहां जाएं और हमारा प्रयास क्या होना चाहिए?” इसके जवाब में उन्होंने लोगों को बताया कि भारत की स्वतंत्रता का मकसद आम आदमी ,किसानों और मजदूरों के लिए स्वतंत्र अवसर पैदा करना तथा गरीबी ,अज्ञानता और बीमारी से लड़ना और उसे समाप्त करना एक स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान होनी चाहिए । एक समृद्ध लोकतंत्र और प्रगतिशील राष्ट्र का निर्माण करना और सामाजिक आर्थिक राजनीतिक संस्थान बनाना हमारा उद्देश्य होना चाहिए । जो प्रत्येक पुरुष और महिला के न्याय एवं जीवन की पूर्णता सुनिश्चित करेंगे । क्या ऐसा हो पाया ? क्या भारत अपने नागरिकों को वह दे पाया जिसका वादा 75 वर्ष पूर्व किया गया था? इस सवाल के जवाब के लिए हम कुछ पैमानों पर इसकी बात कर सकते हैं कि हम एक लोकतंत्र के तौर पर किस और आगे बढ़ना है तो शुरू करते हैं –
(1) व्यक्ति की गरिमा और विकास
पहले हमने नेहरू जी के जिस भाषण का जिक्र किया उसमें उन्होंने व्यक्ति की गरिमा और उसे दिए जाने वाले अधिकारों और उनके लिए किए जाने वाले प्रयासों की बात कही थी इसमें उन्होंने सभी वर्गों और समूहों का जिक्र किया जो इस देश के भविष्य की दशा और दिशा तय कर सकते हैं इसके लिए उन्होंने मानव विकास को सबसे अधिक अहमियत दी जो एक लोकतंत्र का सबसे अहम स्तंभ होता है भारत में मानव विकास स्थिति का बेहतर होना इसके लोकतंत्र की मजबूती के साथ जोड़कर देखा जा सकता है इसे दूसरे शब्दों में कहें तो भारत में मानव विकास का मूल्यांकन ही लोकतंत्र का सही मूल्यांकन होगा।
लेकिन मानव विकास के मूल्यांकन का पैमाना क्या होगा ?
भारत में इसके लिए अवसर की उपलब्धता को पैमाना बनाया गया इसे हम इस बात से समझ सकते हैं कि अगर विकास के अवसरों की उपलब्धता ही नहीं होंगे तो विकास का रास्ता भी नहीं खोला जा सकता, तकनीकी तौर पर भारत में प्रत्येक नागरिक को अवसर की समानता निर्धारित की गई है क्योंकि जब इस श्रेणी में महिलाओं की स्थिति को देखते हैं तो यह साफ तौर पर दिखाई देता है कि आज भी हम लैंगिक असमानता के चंगुल से बाहर नहीं निकल पाए ऐसे में लगता है कि भारत एक लोकतंत्र के तौर पर इस पर अभी बहुत काम करने की जरूरत है ।
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(2) आर्थिक समानता –
इसकी बात करें तो यह हमेशा से इतना स्पष्ट नहीं रहा है वर्ग और जाति के अनुरूप इसमें बदलाव होते रहे हैं कई जातिगत व्यवस्थाओं में लैंगिक असमानता विद्यमान रही है पुरुषों की तुलना में महिलाएं अल्प पोषित, अल्प शिक्षित और सामाजिक संस्थाओं में अल्प प्रतिनिधित्व के साथ रही हैं। एक मतदाता के आधार पर समानता की अधिकारी होने के बावजूद सत्ता में महिलाओं की निम्न भागीदारी किसी से छुपी हुई नहीं है । भारतीय कार्य क्षेत्र में महिलाओं की कम भागीदारी रही है इसके ऐसा होने के पीछे अनेक कारण जिम्मेदार हैं। ऐसे में भारत की लगभग आधी आबादी दोयम दर्जे की नागरिक और गैर भागीदार बन जाती है, इतनी बड़ी आबादी को मुख्यधारा से दूर करना भारत जैसे बड़े लोकतंत्र को कमजोर करने जैसा होगा। तब ऐसे में सवाल है ,
क्या हम वाकई में सामाजिक रूप से स्वतंत्र हैं?
तो पिछले कुछ दशकों की बात करें तो उसमें भारतीय समाज में आर्थिक, वैश्विक, राजनीतिक मोर्चों पर बहुत तरक्की की है एक राष्ट्र के तौर पर हमारा स्वभाव बदला है, अन्य देशों और कुछ प्रख्यात व्यक्तियों ने समय-समय पर इसकी प्रशंसा भी की है।
क्या हम वाकई बदले हैं ? क्या हम राजनैतिक से इतर सामाजिक तौर पर भी स्वतंत्र हैं?
सामाजिक स्वतंत्रता भी लोकतंत्र की मजबूती का एक अहम स्तंभ है, जैसा कि भीमराव अंबेडकर ने कहा था की “कानूनी स्वतंत्रता तब तक हासिल नहीं की जा सकती जब तक हम सामाजिक स्वतंत्रता ना हासिल कर लें ।”
भारत में अपनी पसंद चुनने की स्वतंत्रता है लेकिन इसके बावजूद आज भी लोग समाज या परिवार के डर से अपनी पसंद चुनने से डरते हैं, डरते हैं इस बात से की लोग क्या कहेंगे, चाहे वह शादी हो या जॉब या फिर किसी और क्षेत्र में चुनाव करना हो । शादी की बात करें तो अधिकतर लोग अपनी जाति में शादी करते हैं जबकि उनके पास अन्य विकल्प मौजूद है और जॉब की बात करें तो अधिकतर लोग सरकारी नौकरी ही करना चाहते है फिर चार उन्हे पसंद हो या न हो । तो क्या यह कहना गलत नहीं होगा कि हम स्वतंत्र हैं? जबकि हम अभी भी मानसिक और सामाजिक गुलामी के चंगुल में फसें है। क्या हमें सिर्फ अंग्रेजों से स्वतंत्रता चाहिए थी? हम मानसिक और सामाजिक गुलामी के चंगुल से कब स्वतंत्रत होंगे?
देश तो स्वतंत्रता के 75 साल पूरे कर चुका है। पर हम खुद की मानसिकता से कब स्वतंत्रत होंगे?
सामाजिक स्वतंत्रता क्या है?
वर्तमान में देश में स्टार्टअप कल्चर की लहर आई है वित्त मंत्री सीता निर्मला सीतारमण के अनुसार 2021 से अब तक कुल 44 नए यूनिकॉर्न जुड़े हैं , यूनिकॉर्न ऐसी कंपनियां हैं जिसकी मार्केट वैल्यू बिना स्टॉक मार्केट में लिस्ट हुए एक बिलियन डॉलर हो चुकी है अलग–अलग राज्य सरकारें योजनाएं चलाकर स्टार्टअप को बढ़ावा दे रही हैं ।
लेकिन क्या समाज स्टार्टअप शुरू करने वाले किसी व्यक्ति को उसी नजर से देखता है जैसा किसी सरकारी सेवा करने वाले को ? स्वतंत्रता के 75 साल बाद भी देश के कुछ हिस्सों में अभी भी सामंतवादी, जमीदारी मानसिकता हावी है, भारत में सामाजिक रूढ़िवादिता और पिछड़ापन आज भी मौजूद है। स्टार्टअप कल्चर को आगे चलकर बिजनेस कल्चर बनाने के लिए आने वाली पीढ़ी का रिस्क ऐपेटाइट बढ़ाने की जरूरत है। स्टार्टअप करने वालों को कम ना अंकें क्योंकि आगे चलकर यही लाखों लोगों को रोजगार देते हैं जो सरकार की तरफ से ना उम्मीद हो चुके होते हैं।
(3) क्षेत्रीय भिन्नता
अगर भारत के साथ स्वतंत्रता हासिल करने वाले देशों की तुलना करें तो पाएंगे कि कई मामलों में भारत उन देशों से पीछे हैं जैसे– स्वास्थ्य, शिक्षा , गरीबी जैसी गहन समस्याएं आज भी मौजूद हैं । नीति आयोग की बहुआयामी गरीबी रिपोर्ट 2021 के अनुसार बिहार में 50% गरीबी दर्ज की गई है , जबकि केरल में 1% है, यह काफी बड़ा अंतर है इस मुद्दे पर भारत को गहन विचार करना चाहिए क्योंकि जब सभी हिस्सों की प्रगति समान होगी तभी हम लोकतंत्र को जिंदा रख पाएंगे ।
निष्कर्ष
लोकतंत्र की आत्मा उसके लोगों की भागीदारी में मौजूद है, लोकतंत्र को बचाने के लिए कई प्रयास किए गए लोगों को सत्ता में भागीदार बनाने के लिए आरटीआई एक्ट लाया गया, लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता देने के लिए मनरेगा जैसी योजनाएं अहम भूमिका निभा रही हैं , सार्वजनिक वितरण प्रणाली, किसानों के लिए सब्सिडी, शिक्षा का अधिकार, पेंशन योजनाएं, समलैंगिकों के अधिकारों पर सार्वजनिक बहस जैसे कई प्रयास किए गए इससे हमें उम्मीद मिलती है कि प्रत्येक नागरिक देश की तरक्की में अहम भूमिका निभा रहा है।