राज्य (State)

राज्य (State)[भाग VI (अनुच्छेद 152-237)]

राज्य की कार्यपालिका

राज्यपाल

  • ‘राज्यपाल’ राज्य विधानमंडल का अभिन्न अंग है, राज्य (State) की कार्यपालिका का औपचारिक प्रधान है तथा केंद्र सरकार का प्रतिनिधि भी है। संविधान के अनुच्छेद 155 के अंतर्गत राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है।
  •   ‘7 वें संविधान संशोधन, 1956’ के बाद एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल बनाया जा सकता है।

राज्यपाल नियुक्त होने के लिये अर्हताएँ

कोई व्यक्ति राज्यपाल बनने के लिये तभी पात्र होगा, अगर वह

(i) भारत का नागरिक है;

(ii) उसने 35 वर्ष की आयु पूरी कर ली है।

राज्यपाल पद के लिये शर्तें

  • उस व्यक्ति को संसद के किसी सदन या किसी राज्य (State) के विधानमंडल के किसी सदन का सदस्य नहीं होना चाहिये। यदि सदन का कोई सदस्य राज्यपाल नियुक्त होता है तो सदन में उसका स्थान पद ग्रहण की तारीख से रिक्त हो जाएगा।
  • राज्यपाल पद पर आसीन व्यक्ति लाभ का कोई पद धारण नहीं करेगा।

पदावधि (Term of office)

अनुच्छेद 156 में राज्यपाल की पदावधि से संबंधित उपबंध दिये गए हैं। इनमें 3 बातें बताई गई हैं-(i) राज्यपाल राष्ट्रपति के ‘प्रसादपर्यंत ‘ अपना पद धारण करेगा, (ii) वह राष्ट्रपति को संबोधित कर त्याग पत्र द्वारा अपना पद छोड़ सकेगा, (iii) उपर्युक्त दोनों उपबंधों के अधीन रहते हुए वह 5 वर्षों की अवधि तक अपने पद पर रहेगा। अंत में यह भी कहा गया है कि वह अपने पद की अवधि समाप्त हो जाने पर भी तब तक पद धारण करता रहेगा, जब तक उसका उत्तराधिकारी पद ग्रहण न कर ले। इस उपबंध का प्रयोजन यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी कारण से राज्यपाल का पद खाली न हो।

वेतन, सुविधाएँ तथा विशेषाधिकार

  • अनुच्छेद 158 के अनुसार- राज्यपाल को वह वेतन, भत्ते और विशेषाधिकार प्राप्त होंगे, जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे।
  • अगर किसी व्यक्ति को दो या दो से अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जाता है तो वे राज्य राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित अनुपात के अनुसार उसके वेतन व भत्तों का खर्च वहन करेंगे।
  • राज्यपाल के वेतन और भत्ते उसकी पदावधि के दौरान कम नहीं किये जा सकेंगे।
  • राज्यपाल अपने पद की शक्तियों के प्रयोग और अपने कर्त्तव्यों के पालन के लिये किये गए किसी कार्य के लिये किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा।
  • अपनी पदावधि के दौरान राज्यपाल को आपराधिक मामले की सुनवाई से छूट प्राप्त होगी। इस दौरान न तो ऐसी कार्रवाई शुरू की जा सकेगी और न ही (यदि पहले ही शुरू हो चुकी थी तो चालू रखी जा सकेगी।
  • कार्यकाल के दौरान राज्यपाल की गिरफ्तारी या कारावास के लिये आदेश देने की अधिकारिता किसी भी न्यायालय को नहीं होगी।
  • विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल को 2 माह की अग्रिम नोटिस देकर उसके खिलाफ सिविल मामलों (निजी कृत्य) की न्यायालय में सुनवाई की जा सकती है।

साधारण विधेयकों के संबंध में

  • जब कोई विधेयक अधिनियम बनाने के लिये राज्यपाल के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है तो अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास निम्नलिखित विकल्प होते हैं
  • वह विधेयक को स्वीकृति देने की घोषणा कर सकता है।
  • वह विधेयक पर स्वीकृति रोक सकता है।
  • वह विधेयक को विधानमंडल को पुनर्विचार के लिये भेज सकता है। यदि विधानमंडल उस विधेयक को राज्यपाल द्वारा सुझाए गए संशोधनों के साथ या उनके बिना पुनः पारित कर देता है तो राज्यपाल को उसे स्वीकृति देनी पड़ती है।
  • अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति की अनुमति के लिये आरक्षित भी रख सकता है। इसकी स्वीकृति के लिये कोई समय-सीमा निर्दिष्ट नहीं है। इस आरक्षित विधेयक के मामले में राष्ट्रपति राज्यपाल को निर्देश देकर विधेयक को (धन विधेयक को छोड़कर) पुनर्विचार हेतु विधायिका को लौटा सकता है।
  • यदि राज्यपाल की राय में कोई ऐसा विधेयक जिसके विधि बन जाने पर वह संविधान में परिकल्पित उच्च न्यायालय की शक्तियों में कमी कर देगा तो ऐसे विधेयक को राज्यपाल, राष्ट्रपति के लिये अनिवार्य रूप से आरक्षित रखेगा।
  • अनुच्छेद-200 के तहत आरक्षित विधेयक पर राष्ट्रपति द्वारा अनुमति देने या अनुमति रोक देने की घोषणा का वर्णन अनुच्छेद-201 में किया गया है।

धन विधेयकों के संबंध में

  • वह विधेयक को स्वीकृति देने की घोषणा कर सकता है, जिससे वह अधिनियम बन जाता है। प्रायः वह स्वीकृति ही देता है क्योंकि विधानसभा में धन विधेयक पेश किये जाने से पहले उसकी पूर्व सहमति ली जा चुकी होती है या फिर वह धन विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित कर सकता है।
  • राज्यपाल की वित्तीय शक्तियाँ व अध्यादेश की शक्तियाँ (अनुच्छेद 213) राज्य स्तर पर लगभग वे ही हैं, जो केंद्र स्तर पर राष्ट्रपति को प्राप्त हैं।

विवेकाधीन शक्तियाँ

  • राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित करना (अनुच्छेद 200)
  • राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना।
  • अतिरिक्त प्रभार की स्थिति में पड़ोसी केंद्र शासित राज्य में बतौर प्रशासक के रूप में कार्य करते समय शक्तियाँ।
  • असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के राज्यपाल द्वारा खनिज उत्पादन की रॉयल्टी के रूप में जनजातीय जिला परिषद् को देय राशि का निर्धारण।
  • राज्य के प्रशासनिक मामलों में मुख्यमंत्री से जानकारी प्राप्त करना।

मुख्यमंत्री

  • किसी राज्य मुख्यमंत्री की वही स्थिति है जो संघ में प्रधानमंत्री की। राज्यपाल राज्य का मुखिया होता है, वहीं मुख्यमंत्री सरकार का ।
  • अनुच्छेद 164(1) में बताया गया है, “मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर करेगा।

किसी राज्य के विधानमंडल के किसी सदस्य की निर्हता से संबंधित निर्णय चुनाव आयोग की सलाह पर राज्यपाल करता है। (अनुच्छेद 192)

 

राज्य की मंत्रिपरिषद्

अनुच्छेद 164(1) में निहित है, “मंत्री राज्यपाल के प्रसादपर्यंत अपने पद धारण करेंगे।” इसका तात्पर्य है कि मंत्री सामूहिक रूप से भले ही विधानसभा के प्रति उत्तरदायी हों, वे व्यक्तिगत तौर पर कार्यपालिका के प्रमुख के प्रति उत्तरदायी होते हैं। ‘राज्यपाल के प्रसादपर्यंत’ पद धारण करने का वास्तविक अर्थ ‘मुख्यमंत्री के प्रसादपर्यंत’ पद धारण करना है।

मंत्रिपरिषद् का आकार

  • संविधान के ’91 वें संशोधन अधिनियम, 2003′ के माध्यम से अनुच्छेद 164(1क) को अंतःस्थापित करके यह उपबंध किया गया है कि मंत्रिपरिषद् में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी, परंतु किसी राज्य में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की संख्या 12 से कम नहीं होगी।

दलबदल-विरोध से संबंधित प्रावधान

  • दलबदल संबंधी 10वीं अनुसूची 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 द्वारा अंतःस्थापित की गई थी।
  • दलबदल की स्थिति में अब (91वें संविधान संशोधन के बाद से) कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा किसी अन्य दल में किया गया
  • ‘विलय’ (Merger) ही कानूनी तौर पर मान्य है। यदि उससे कम सदस्य दल छोड़ने का फैसला करते हैं तो वे सदन के सदस्य नहीं रहते हैं और उन्हें जनता से पुनः निर्वाचित होना पड़ता है।

राज्य का महाधिवक्ता (Advocate General of State)

  • अनुच्छेद 165(1) के अनुसार प्रत्येक राज्य का राज्यपाल, उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिये अर्हित किसी व्यक्ति को राज्य का महाधिवक्ता नियुक्त करेगा।
  • महाधिवक्ता राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करेगा [अनुच्छेद-165(3)] और अनुच्छेद 165(2) के तहत महाधिवक्ता राज्य सरकार को विधि से संबंधित विषयों पर सलाह देगा तथा सौंपे गए विधिक प्रकृति के अन्य कार्य करेगा।

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विधान परिषद्

  • अनुच्छेद 169 के अंतर्गत संसद विधि द्वारा किसी राज्य (State) में विधान परिषद् का सृजन या समाप्त करने के लिये विधि बना सकेगी, बशर्ते उस राज्य की विधानसभा ने इस आशय का संकल्प पारित किया हो। ऐसा संकल्प विधानसभा की कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों की संख्या के कम-से-कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित होना अनिवार्य है। ऐसी विधि को अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिये संविधान का संशोधन नहीं समझा जाएगा।
  • वर्तमान में विधान परिषद् वाले राज्य हैं- बिहार, महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना।
  • राज्य विधान परिषदों को भंग नहीं किया जा सकता है, लेकिन अनुच्छेद 169 के अधीन समाप्त किया जा सकता है। इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष में सेवानिवृत्त होते रहते हैं।

आरक्षण

  • प्रत्येक राज्य की विधानसभा की सदस्यता के लिये अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को राज्य की जनसंख्या में उनके अनुपात के अनुसार आरक्षण दिया जाएगा। (अनुच्छेद 332 )

नोट: 25 जनवरी, 2020 को लागू हुए 104वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2019 के द्वारा लोकसभा व राज्य की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिये आरक्षण की निर्धारित अवधि को (पूर्व के संविधान लागू होने की तिथि से 70 वर्षों तकके प्रावधान से बढ़ाकर 80 वर्षों) 10 वर्ष और विस्तारित किया गया है।

अध्यक्ष व सभापति की शक्तियाँ तथा कार्य

  • किसी प्रस्ताव के पक्ष और विपक्ष में बराबर मत पड़ते हैं तो वे निर्णायक मत देते हैं।
  • सदन के किसी सदस्य के संबंध में दल-बदल संबंधी शिकायत मिलने पर उसकी निर्हता के प्रश्न पर फैसला करना ।
  • कोई विधेयक धन विधेयक (Money Bill) है या नहीं, यह निश्चित करने की शक्ति विधानसभा अध्यक्ष के पास है। इस संबंध में उसका निर्णय अंतिम होता है।

धन विधेयकों की प्रक्रिया

  • धन विधेयक केवल विधानसभा में राज्यपाल की पूर्व सहमति पर पुनःस्थापित किया जाता है। यह एक सरकारी विधेयक होता है जो सिर्फ एक मंत्री द्वारा ही पुनःस्थापित किया जाता है। द्विसदनीय विधानमंडल होने पर विधानसभा से पारित धन विधेयक विधान
  • इस प्रकार दोनों सदनों से पास होने के बाद विधेयक राज्यपाल के समक्ष पेश किया जाता है। विधानसभा अध्यक्ष विधेयक के साथ इस आशय का प्रमाण पत्र पृष्ठांकित करता कि यह धन विधेयक है। अनुच्छेद 200 के तहत धन विधेयक के मामले में राज्यपाल को यह अधिकार नहीं है कि वह उसे राज्य के विधानमंडल को पुनर्विचार के लिये लौटा सके। उसके पास तीन ही विकल्प होते हैं- पहला यह कि वह उस पर स्वीकृति दे, दूसरा यह कि स्वीकृति रोक ले और तीसरा यह कि वह विधेयक को राष्ट्रपति के विचार के लिये आरक्षित कर ले। इसके बाद इस विधेयक के संदर्भ में राज्यपाल की कोई भूमिका नहीं होती।
  • अनुच्छेद 201 में बताया गया है कि राष्ट्रपति भी धन विधेयक पर या तो अनुमति दे सकेगा या उसे रोक सकेगा; पर उसे सदन या सदनों के पास पुनर्विचार के लिये नहीं भेज सकेगा। • साधारणतः राज्यपाल धन विधेयक पर स्वीकृति दे देता है।

विभिन्न प्रकार की निधियाँ

  • राज्य की संचित निधि (अनुच्छेद 266)
  • राज्य का लोक लेखा [अनुच्छेद 266 (2)]

राज्य की आकस्मिकता निधि (अनुच्छेद 267) – राज्य का विधानमंडल विधि द्वारा अग्रदायस्वरूप की एक आकस्मिकता निधि की स्थापना कर सकेगा। जब किसी आकस्मिक खर्च के लिये राज्य के विधानमंडल ने सरकार को प्राधिकृत न किया हो तब राज्यपाल राज्य की आकस्मिकता निधि से आवश्यक धनराशि सरकार को अग्रिम के तौर पर दे सकता है।

यह निधि राज्यपाल के अधिकार में रहती है और इसे संचालित करने के लिये संसदीय कार्यवाही की आवश्यकता नहीं होती। राज्यपाल की ओर से राज्य सरकार का वित्त सचिव इसका संचालन करता है।

अन्य उपबंध

  • सातवीं अनुसूची में शामिल तीनों सूचियों के अलावा संविधान के कुछ अन्य अनुच्छेद भी संसद तथा विधानमंडलों को विधि निर्माण की शक्ति प्रदान करते हैं

 

सातवीं अनुसूची में शामिल सूचियों का परिचय

संघ सूची (Union List)

 

  • कानून बनाने की अनन्य शक्ति केंद्र के पास होती है।
  • इसमें राष्ट्रीय महत्त्व के विषय आते हैं, जैसे- राष्ट्रीय सुरक्षा, सेनाएँ और सशस्त्र बल, युद्ध तथा शांति, विदेशों के साथ संबंध, रेल, तार, डाक इत्यादि ।इसमें कुल 97 प्रविष्टियाँ थीं, किंतु विभिन्न संशोधनों के
  • बाद यह संख्या 100 हो गई है।
राज्य सूची (State List)
  • इन पर राज्य विधानमंडल कानून बनाती है तथा सामान्य स्थितियों में संसद इसका अतिक्रमण नहीं कर सकती।
  • इसमें स्थानीय महत्त्व के विषय आते हैं, जैसे- पुलिस, भूमि, लोक व्यवस्था, मनोरंजन इत्यादि ।
  • इस सूची में मूलतः 66 प्रविष्टियाँ थीं, किंतु 7वें तथा 42वें संशोधन के बाद इसमें अब 61 प्रविष्टियाँ शेष हैं।
समवर्ती सूची (Concurrent List)
  • इन पर संसद तथा राज्य विधानमंडल दोनों कानून बना सकते। हैं, किंतु गतिरोध की स्थिति में ‘संसद का कानून’ ही मान्य होगा।
  • इसमें दंड विधि, दंड प्रक्रिया संहिता, शिक्षा इत्यादि जैसे विषय हैं।
  • मूल रूप से इसमें 47 प्रविष्टियाँ थीं, किंतु वर्तमान में इस सूची में 52 प्रविष्टियाँ हैं।

 

  • अनुच्छेद-248 यह घोषित करता है कि अवशिष्ट अर्थात् शेष रह गई शक्तियाँ केंद्र में निहित होंगी। साथ ही यह केंद्र को करारोपण (सूचियों में अवर्णित) की शक्ति भी देता है। इस प्रकार यह अनुच्छेद केंद्र के मज़बूत होने का सूचक है।
  • अनुच्छेद-250 में स्पष्ट किया गया है कि जब तक राष्ट्रीय आपात की उद्घोषणा लागू है तब तक संसद को राज्य सूची में शामिल विषयों पर भारत या उसके किसी भाग के लिये विधि बनाने की शक्ति होगी।
  • संसद द्वारा निर्मित ऐसी विधियाँ आपात की उद्घोषणा की समाप्ति के छह महीने की अवधि पूरी होते ही समाप्त हो जाएंगी।
  •  अनुच्छेद-252 में कहा गया है कि अगर दो या अधिक राज्यों के विधानमंडल संकल्प पारित करके संसद से निवेदन करते हैं तो संसद राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकेगी।
  • अनुच्छेद-253 के तहत संसद को विशेष शक्ति दी गई है कि वह भारत सरकार द्वारा किसी अन्य देश के साथ की गई संधि, करार, अभिसमय या किसी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन, संगठन या अन्य निकाय में किये गए किसी विनिश्चय को लागू करने के लिये भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिये विधि पारित कर सकती है।

राष्ट्रपति शासन के दौरान

  • अगर अनुच्छेद-356 के तहत किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा की जाती है तो राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ कुछ समय के लिये केंद्र को मिल जाती हैं।
  • अनुच्छेद- 357 में बताया गया है कि इस अवधि के दौरान राज्य के विधानमंडल की शक्तियाँ संसद द्वारा या संसद के प्राधिकार के अधीन प्रयुक्त होंगी।
राष्ट्रीय महत्त्व की संस्थाओं के संबंध में अगर संसद विधि द्वारा किसी संस्था को राष्ट्रीय महत्त्व की संस्था घोषित कर देती है तो वह उस संस्था से संबंधित सभी विषयों पर विधि बनाने के लिये अधिकृत हो जाएगी। धरम दत्त बनाम भारत संघ‘ (2004) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संसद की इस शक्ति को वैधता प्रदान की है।

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