मानव शरीर के तंत्र

मानव शरीर के तंत्र

पाचन तंत्र (Digestive System)

मनुष्य के पाचन तंत्र में सम्मिलित अंगों को दो मुख्य भागों में बाँटा गया है-(A) आहार नाल तथा (B) सहायक पाचक ग्रंथियाँ।

Digestive System

आहार नाल (Alimentary Canal or Gastrointestinal Tract)

  • यह एक लंबी व सतत् नलिका है जो मुख (Mouth) से गुदा (Anus) तक फैली हुई होती है।
  • मनुष्य का आहार नाल लगभग 30 फीट लंबा होता है जो निम्नलिखित भागों में बँटा रहता है- (a) मुखगुहा (b) ग्रसनी (c) ग्रासनली (d) आमाशय (e) छोटी आँत (f) बड़ी आँत

(a) मुखगुहा (Oral Cavity or Buccal Cavity)

  • मुखगुहा आहार नाल का पहला भाग है। मुखगुहा में जीभ तथा दाँत होते हैं।
  • स्वाद का अनुभव करने के लिये जीभ की ऊपरी सतह पर स्वाद कलिकाएँ (Taste Buds) पाई जाती हैं जो मीठा, खट्टा, नमकीन व कड़वे स्वाद का अनुभव करवाती हैं।

मम्स/ गलसुआ (Mumps): यह पैरामिक्सो (Paramyxo) वायरस द्वारा फैलाई जाने वाली बीमारी है, जिसमें पैरोटिड ग्रंथि में सूजन, जलन व दर्द होने लगता है।

मुखगुहा में पाचन (Digestion in Mouth Cavity)

  • पाचन का प्रारंभ मुखगुहा से ही हो जाता है जहाँ भोजन को ‘लार’ (Saliva) की सहायता से मथा जाता है।
  •  मनुष्य में तीन जोड़ी लार ग्रंथियाँ पाई जाती हैं।
  • सभी लार ग्रंथियाँ लार स्रावित करती हैं जिनमें 99 प्रतिशत जल तथा 1 प्रतिशत एंजाइम होता है।
  • लार में मुख्यतः दो प्रकार के पाचक एंजाइम्स-टायलिन (Ptylin) व लाइसोजाइम (Lysozyme) पाए जाते हैं।
  • मेंढक और व्हेल मछली में लार ग्रंथियाँ नहीं पाई जाती हैं।
  • लार में ‘टायलिन’ नामक एंजाइम उपस्थित होता है जो भोजन के स्टार्च को डाइसैकराइड माल्टोस में तोड़ देता है।
  • लार में उपस्थित लाइसोजाइम व थायोसायनेट आयन भोजन के साथ आए हुए सूक्ष्म जीवों व जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं।
  • भोजन में उपस्थित लगभग 30 प्रतिशत मंड (Starch) का पाचन मुखगुहा में ही हो जाता है।

दाँत (Tooth)

human tooth

  • मनुष्य ‘विषमदंती’ (Heterodont) होता है, अर्थात् मनुष्य में 4 प्रकार के दाँत पाए जाते हैं,
  • कृतक (Incisor), रदनक (Canine) अग्रचवर्णक(Premolar) एवं चवर्णक (Molar) कृतक (Incisor) सबसे आगे के दाँत हैं जिनका कार्य भोजन को काटना होता है।
  • रदनक (Canine) नुकीले दाँत होते हैं जिनका कार्य भोजन को फाड़ना होता है।
  • अग्रचवर्णक (Premolar) तथा चवर्णक (Molar) को ‘गाल दंत’ (Check Teeth) कहा जाता है जिनका कार्य भोजन को पीसना होता है।
  • तीसरे चवर्णक लगभग 20 वर्ष की आयु में निकलते हैं जिन्हें ‘बुद्धि दंत’ (Wisdom Teeth) कहते हैं। मनुष्य में रदनक व बुद्धि दंत अवशेषी संरचनाएँ (Vestigial Structures) हैं।
  • इनैमल (Enamel) दाँत की ऊपरी परत होती है। इनैमल मानव शरीर का कठोरतम भाग (The Hardest Part) होता है।
  • इनैमल लगभग 98 प्रतिशत कैल्शियम लवण (कैल्शियम फॉस्फेट व कैल्शियम कार्बोनेट) द्वारा बना होता है जिसे फ्लोरीन मजबूती प्रदान करता है।

(b) ग्रसनी (Pharynx)

मुखगुहा का पिछला भाग ग्रसनी कहलाता है।

(c) ग्रासनली (Oesophagus)

  • मुखगुहा से लार युक्त भोजन ग्रासनली में पहुंचता है।
  • यह एक लंबी नली है जो अमाशय में खुलती है।
  • इसके क्रमाकुंचन (Peristalsis) किया के कारण भोजन नीचे की ओर खिसकता है।
  • यहाँ कोई पाचन क्रिया नहीं होती है।

(d) आमाशय (Stomach)

  • यह वक्षगुहा में बाई तरफ फैली हुई रचना है जो तीन भागों में बंटी रहती है-
  • (i) अग्र भाग (कार्डियक), (ii) मध्य भाग (फॉडिक) (iii) पश्च भाग (पाइलोरिक )
  • आमाशय को भीतरी दीवार पर जठर ग्रंथियाँ (Gastric Glands) पाई जाती हैं।

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आमाशय में पाचन (Digestion in Stomach)

  • आमाशय प्रोटीन पाचन का प्रमुख स्थान होता है।
  • आमाशय की भीतरी दीवार पर उपस्थित ‘जठर ग्रंथियों’ जठर रस स्रावित करती हैं, जो अत्यधिक अम्लीय (pH = 1.8) होता है।
  • जठर रस के अंतर्गत पाचक एंजाइम्स, यथा- पेप्सिन एवं रेनिन तथा हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCI) एवं म्यूकस (Mucus) आते हैं।
  • HCI की उपस्थिति में ‘पेप्सिनोजन’ सक्रिय पेप्सिन में बदल जाता है एवं प्रोटीन को सरल अणुओं (पहले प्रोटिओज फिर पेप्टोन्स) में तोड़ देता है।
  • इसी प्रकार HCI की उपस्थिति में निष्क्रिय ‘प्रोरेनिन’ सक्रिय रेनिन’ में परिवर्तित हो जाता है।
  • यह रेनिन दूध में उपस्थित कैसिनोजन प्रोटीन को कैसीन में बदल देता है।
  • आमाशय में उपस्थित एक अन्य एंजाइम गैस्ट्रिक लाइपेज’ (Gastric Lipase) वसा का पाचन करके इसे ट्राइग्लिसराइड में बदल देता है।
  • म्यूकस जठर रस के अम्लीय प्रभाव को कम कर आमाशय की रक्षा करता है।

(e) आँत  (Intestine)

  • मनुष्य की आँत की लंबाई लगभग 22 फीट होती है।
  • शाकाहारियों में आँत की लंबाई अपेक्षाकृत अधिक होती है जिससे भोजन अवशोषण हेतु अतिरिक्त पृष्ठ क्षेत्र (Surface Area) मिल सके।
  • मनुष्य की आँत को दो भागों में बाँटा जा सकता है

छोटी आंत (Small Intestine)

  • छोटी आँत तीन भागों में विभक्त होती है ग्रहणी (Duodenum), अग्रक्षुद्रांत (Jejunum) तथा क्षुद्रांत ( Ileum)
  • आमाशय से निकलने के पश्चात् भोजन ‘अम्लान्न’ (Chyme) कहलाता है।
  • यह काइम ग्रहणी में पहुँचता है जहाँ सबसे पहले यकृत से निकलकर पित्त रस इसमें मिलता है।
  • क्षारीय प्रकृति का होने के कारण पित्त रस काइम को क्षारीय बना देता है।
  • पित्त रस में किसी भी प्रकार का एंजाइम नहीं पाया जाता।
  • यहाँ अग्न्याशय से स्रावित अग्न्याशय रस आकर काइम में मिलता है।
  • इसके पश्चात् यह इलियम में पहुंचता है, जहाँ आंत्र रस की क्रिया काइम पर होती है।
  • छोटी आँत में भोजन के पूर्ण पाचन के उपरांत, उसका अवशोषण भी छोटी आँत में स्थित रसाकुर (Villi) द्वारा होता है।
  • बिना पचा हुआ काइम बड़ी आँत में पहुँचता है जहाँ जल का अवशोषण होता है एवं शेष काइम मल के रूप में मलाशय में एकत्र होकर गुदा द्वारा बाहर निकाल दिया जाता है।
छोटी आंत में पाचन (Digestion in Small Intestine)
  • छोटी आँत में भोजन के आते ही इसमें तीन पाचक रस (पित्त रस. अग्न्याशय रस तथा आंत्र रस) मिला दिये जाते हैं।

पित्त रस (Bile Juice)

  • पित्त रस यकृत द्वारा स्रावित होता है जो पित्ताशय (Gall Bladder) में संचित रहता है।
  • पित्त रस गाढ़ा, हरे-पीले रंग का हल्का क्षारीय द्रव होता है।
  • मनुष्य में प्रतिदिन लगभग 600 मिली, पित्त रस स्रावित होता है।
  • पित्त रस में कोई भी पाचक एंजाइम नहीं पाया जाता।
  • पित्त रस में पित्तवर्णक (Bile Pigment) जैसे- बिलीरुबीन, बिली वर्डिन आदि भी पाए जाते हैं।
  • पित्त रस में उपस्थित दो लवण-‘सोडियम ग्लाइकोकोलेट’ तथा ‘सोडियम टॉरोकॉलेट’ भोजन में उपस्थित वसा को जल के साथ मिलाकर छोटी छोटी बूँदों में तोड़ देते हैं जिसे वसा का इमल्सीकरण
  • (Emulsification of Fat) कहते हैं।
  • वसा में घुलनशील विटामिन्स (A, D, E, K) के अवशोषण में भी पित्त रस की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
  • यदि किसी व्यक्ति का पित्ताशय निकाल दिया जाए तो उस व्यक्ति में वसा का पाचन सामान्यतः नहीं हो पाता है।

अग्न्याशय रस (Pancreatic Juice)

  • अग्न्याशय रस क्षारीय होता है जो अग्न्याशयी कोशिकाओं द्वारा स्रावित होता है।
  • इसमें 98 प्रतिशत जल तथा शेष 2 प्रतिशत एंजाइम व लवण (सोडियम बाइकार्बोनेट) होते हैं।
  • इसमें कार्बोहाइड्रेट, वसा, प्रोटीन आदि सभी के पाचन के लिये पाचक एंजाइम्स उपस्थित होते हैं।
  • अतः इसे पूर्ण पाचक रस‘ (Complete Digestive Juice) कहा जाता है।
  • इसमें एमाइलेज, ट्रिप्सिन, काइमोट्रिप्सिन, कार्बोक्सीपेप्टिडेज, लाइपेज आदि एंजाइम पाए जाते हैं।

आंत्र रस (Intestinal Juice)

  • यह हल्के पीले रंग का हल्का क्षारीय द्रव होता है, जो आंत्र-ग्रंथियों द्वारा स्रावित होता है।
  • मनुष्य में लगभग 2-3 लीटर आंत्र रस प्रतिदिन स्रावित होता है।
  • आंत्र रस में निम्नलिखित एंजाइम्स उपस्थित होते हैं

माल्टेज: माल्टोज की ग्लूकोज में बदल देता है।

सुक्रेज: सुक्रोज (चीनी) को ग्लूकोज तथा फ्रक्टोज में बदल देता है।

लेक्टेज: लेक्टोज को ग्लूकोज तथा गैलेक्टोज में बदल देता है।

इरेप्सिन: डाइ तथा ट्राई पेप्टाइड (प्रोटीन के अवयव) को एमीनो अम्लों में तोड़ देता है।

इस प्रकार आँत में संपूर्ण भोजन का पाचन हो जाता है।

बड़ी आंत (Large Intestine)

  • बड़ी आँत, छोटी आँत की तुलना में अधिक चौड़ी, किंतु लंबाई में छोटी होती है।
  • मनुष्य में यह लगभग 5 फीट लंबी तथा 2.5 इंच चौड़ी होती है।

बड़ी आँत तीन भागों में विभक्त

सीकम (Cecum)

वृहद्रांत (Colon)

मलाशय (Rectum)

  • मनुष्य में सोकम से एक मुड़ी (Twisted) और कुंडलित (Coiled) लगभग 2 इंच लंबी रचना ‘वर्मीफॉर्म एपेंडिक्स’ निकलती है।
  • वर्मीफॉर्म एपेंडिक्स एक अवशेषी अंग है।
  • बड़ी आँत कोई एंजाइम स्राव नहीं करती है।
  • इसका कार्य केवल बिना पचे हुए भोजन को कुछ समय के लिये संचित करना होता है।
  • यहाँ जल और कुछ खनिजों का अवशोषण होता है।

पाचक ग्रंथियों

यकृत (Liver)
  • यह मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है।
  • यकृत कोशिकाओं से, पित्त का स्नाव होता है जो यकृत नलिका से होते हुए एक पतली पेशीय थैली (पित्ताशय) में सांद्रित एवं जमा होता है।
  • यह विटामिन A का संश्लेषण भी करता है।
  • इसके अलावा यकृत ग्लूकोज को ग्लाइकोजन के रूप में संचित रखता है।
  • पित्त का लगातार स्रवण करना यकृत का प्रमुख कार्य होता है।
  • यद्यपि पित्त में एंजाइम नहीं होते, फिर भी पित्त लवण भोजन, विशेषतः वसाओं के पाचन के लिये अत्यावश्यक होता हैं।
  • पित्त भोजन को सड़ने से रोकता है। लंबे समय तक शराब का सेवन, हेपेटाइटिस-बी एवं सी संक्रमण, विषाक्त धातुओं आदि के कारण यकृत सिरोसिस नामक रोग हो जाता है।

यकृत के अन्य कार्य –

  • बाइल जूस एवं यूरिया का सश्लेषण
  • कार्बनिक पदार्थों का संग्रह
  • एंजाइमों का स्रवण
  • हिपैरिन का स्रवण
  • लाल रक्त कणिकाओं के निर्माण के लिये आयरन को स्टोर करना।
अग्न्याशय (Pancreas)
  • अग्न्याशय U आकार के ग्रहणी के बीच स्थित एक लंबी ग्रंथि है, जो बहिस्रावी और अंतःस्रावी, दोनों ही ग्रंथियों की तरह कार्य करती है।
  • बहिर्मावी भाग से क्षारीय अग्न्याशयी रस निकलता है, जिसमें एंजाइम होते हैं और अंतःस्रावी भाग से इंसुलिन और ग्लूकागॉन नामक हार्मोन का स्राव होता है।
  • अग्न्याशय द्वारा ट्रिप्सिन एंजाइम का साब किया जाता है जो प्रोटीन को अमीनों अम्ल में परिवर्तन के लिये उत्प्रेरक की तरह कार्य करता है।

श्वसन तंत्र (Respiratory System)

मनुष्य का श्वसन तंत्र निम्नलिखित अंगों से मिलकर बना होता है

Respiratory System

  1. नाक (Nose)
  2. ग्रसनी (Pharynx)
  3. स्वरयंत्र (Larynx)
  4. श्वासनली (Trachea )
  5. फेफड़े (Lungs )
  • इसके अतिरिक्त ब्रोंकी (Bronchi) एवं ब्रोंकी ओल्स (Bronchioles), डायफ्रॉम व इंटरकोस्टल पेशियाँ भी श्वसन में सहायता करती हैं।
  • नाक श्वसन मार्ग का प्रथम अंग है।
  • ग्रसनी, पाचन व श्वसन तंत्र दोनों के अंतर्गत आती है।
  • वायु ग्रसनी से होते हुए श्वासनली में पहुँचती है।
  • श्वासनली, वक्षगुहा (Thoracic Cavity) में विभाजित होकर दो श्वसनियों (Bronchus) में बँट जाती है।
  • प्रत्येक श्वसनी फेफड़ों में पहुँचकर श्वसनिकाओं (Bronchioles) में बँट जाती है।
  • इनका अंतिम छोर वायुकोष (Airsac or Alveoli) में खुलता है।
  • प्रत्येक वायुकोष फेफड़ों की संरचनात्मक एवं कार्यिकी इकाई होती है।

फेफड़े (Lungs)

  • वक्षगुहा में दोनों तरफ एक-एक स्पंजी, गुलाबी और लगभग शंक्वाकार फेफड़ा पाया जाता है।
  • बाएँ फेफड़े की अवतली खाँच को हृदयी खाँच (Cardiac Notch) कहते हैं, जिसमें हृदय (Heart) स्थित रहता है।
  • फेफड़ों तक अशुद्ध रक्त (Deoxygenated Blood) ‘फुफ्फुस धमनी’ (Pulmonary Artery) द्वारा पहुँचाया जाता है।
  • यह मानव-शरीर की एकमात्र धमनी है जिसमें अशुद्ध रक्त बहता है।
  • फेफड़ों द्वारा शुद्ध किया हुआ रक्त (Oxygenated Blood) ‘फुफ्फुस शिरा’ (Pulmonary Vein) द्वारा हृदय के बाएँ आलिंद (Left Atrium) में पहुँचाया जाता है।
  • यह मानव शरीर का एकमात्र शिरा है जिसमें शुद्ध रक्त बहता है।
  • डायफ्रॉम की उपस्थिति स्तनधारियों का मूलभूत लक्षण होता है।

श्वसन (Respiration)

  • श्वसन एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें ऊर्जा का उत्पादन होता है।
  • इस प्रक्रिया में सामान्य स्थितियों में ग्लूकोज का ऑक्सीजन की उपस्थिति में ऑक्सीकरण (Oxidation) होता है तथा ऊर्जा (Energy) विमुक्त होती है।
  • इसी कारण ग्लूकोज (Glucose) को कोशिकीय ईंधन (Cellular Fuel) कहा जाता है।
  • श्वसन की प्रक्रिया जीव-जंतुओं तथा पेड़-पौधों सभी में समान रूप से होती है।
  • श्वसन क्रिया को निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त किया जाता है –
  • ग्लूकोज + ऑक्सीजन→ कार्बन डाइऑक्साइड+ जल+ ऊर्जा
  • वातावरण से ली गई वायु में 21 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 0.03 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड होता है, जबकि नाक द्वारा छोड़ी गई साँस में लगभग 16 प्रतिशत ऑक्सीजन तथा 3.6 प्रतिशत कार्बन डाइऑक्साइड होता है।
  • फेफड़ों के एल्वियोली में बाहर से ली गई वायु में उपस्थित O2 तथा एल्वियोली के ऊपर मौजूद केशिकाओं (Capillaries) में प्रवाहित अशुद्ध रक्त में उपस्थित CO2 का श्वसन झिल्ली द्वारा होने वाला आदान-प्रदान गैस-विनिमय कहलाता है। गैस-विनिमय विसरण विधि द्वारा होता है।
  • श्वसन की दर वयस्क मनुष्यों में 12-15 बार प्रति मिनट तथा शिशुओं में लगभग 44 बार प्रति मिनट होती है।
  • श्वसन क्रिया पूर्ण रूप से तंत्रिकीय नियंत्रण में होती है।

ऑक्सीजन का परिवहन (Transportation of Oxygen)

  • हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन के साथ मिलकर एक अस्थायी यौगिक ऑक्सीहीमोग्लोबिन (Oxyhaemoglobin) बना लेता है।
  • हीमोग्लोबिन (Haemoglobin) का रंग बैंगनी (Violet) होता है जबकि ऑक्सीहीमोग्लोबिन (Oxyhaemoglobin) का रंग चमकदार लाल (Bright Red) होता है।
  • यही कारण है कि ऑक्सीकृत (Oxygenated) अर्थात् ऑक्सीहीमोग्लोबिन युक्त शुद्ध रक्त चमकीला लाल होता है तथा अशुद्ध रक्त बैंगनी (Violet) रंग का होता है।
  • एक सामान्य व्यक्ति में हीमोग्लोबिन की मात्रा औसत रूप से 15 ग्राम / 100 मिली. रक्त होती है।

कार्बन मोनोऑक्साइड का प्रभाव

  • कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) एक अत्यन्त जहरीली (Poisonous) गैस है।
  • CO के प्रति हीमोग्लोबिन का आकर्षण ऑक्सीजन (O2) से लगभग 250 गुना अधिक होता है।
  • CO की उपस्थिति में हीमोग्लोबिन इससे अभिक्रिया कर लेता है जिससे इसकी 02 को ले जाने की क्षमता कम हो जाती है।
  • फलस्वरूप रक्त में O2 की कमी के कारण मस्तिष्क अवचेतन अवस्था में चला जाता है तथा लंबे समय तक ऑक्सीजन की कमी मृत्यु का कारण बन जाती है।

ऊँचाई एवं श्वसन (Altitude and Respiration)

  • जैसे-जैसे हम ऊँचाई पर जाते हैं हवा का घनत्व तथा ऑक्सीजन की मात्रा घटती जाती है।
  • इस कारण रक्त में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है, जिसे हाइपोक्सिया (Hypoxia) कहा जाता है।
  • ऊँचाई पर रक्त में ऑक्सीजन की मात्रा को आवश्यक स्तर पर लाने से शरीर में RBCs का उत्पादन बढ़ जाता है और रक्त में RBCs की संख्या बढ़ जाती है। साथ ही श्वसन दर भी तीव्र हो जाती है।

परिसंचरण तंत्र (Circulatory System)

  • शरीर में रुधिर का परिसंचरण सदैव एक निश्चित दिशा में होता है।
  • और रुधिर परिसंचरण का कार्य हृदय द्वारा संपादित किया जाता है।
  • रुधिर परिसंचरण की खोज विलियय हार्वे ने की थी।
  • बहुकोशिकीय जंतुओं के शरीर में विभिन्न पोषक पदार्थों, गैसों, उत्सर्जी पदार्थों आदि के परिवहन के लिये एक तंत्र होता है जिसे परिसंचरण तंत्र कहा जाता है।
  • मनुष्यों में रुधिर तथा लसिका द्वारा पचे हुए भोजन, ऑक्सीजन,हार्मोन्स, अपशिष्ट उत्पाद जैसे विविध पदार्थ संबंधित अंगों एवं ऊतकों तक पहुँचाए जाते हैं।
  • रक्त परिसंचरण तंत्र हृदय, रुधिर एवं रुधिर वाहिकाओं से मिलकर बना होता है।

हृदय (Heart)

  • हृदय बंद मुट्ठी के आकार का होता है जो दोनों फेफड़ों के मध्य वक्षगुहा में स्थित रहता है तथा थोड़ा सा बाई तरफ झुका रहता है।
  • यह एक दोहरी झिल्ली ‘पेरीकार्डियम’ से घिरा रहता है।
  • हृदय में चार कक्ष होते हैं, जिनमें दो कक्ष अपेक्षाकृत छोटे तथा ऊपर को पाए जाते हैं जिन्हें अलिंद (Atrium) कहते हैं तथा दो कक्ष अपेक्षाकृत बड़े होते हैं जिन्हें निलय (Ventricle) कहते हैं।
  • सामान्य मनुष्य के हृदय का वजन लगभग 300 ग्राम होता है।
  • यह प्रति मिनट 70 से 80 बार धड़कता है। एक वयस्क व्यक्ति का रक्तचाप लगभग 120/80 होता है।
  • यह रक्तचाप वायुमंडलीय दाब से अधिक होता है।

Heart

  • हृदय की धड़कन पर नियंत्रण के लिये पोटेशियम (K) आवश्यक है।
  • प्रकुंचन दाब (Systolic Pressure) 120mmHg तथा आकुंचन दाब (Diastolic Pressure) = 80mmHg के अंतर को नाड़ी दाब(Pulse Pressure) = 40mmHg कहते हैं।
  • हृदय लगभग 5 लीटर रक्त प्रति मिनट पंप करता है।
  • नाड़ी की गति, हृदय स्पंदन गति (70-90 / मि.) के समान होती है।

रुधिर वाहिकाएँ (Blood Vessels)

रक्त रुधिर वाहिकाओं में प्रवाहित होता है। रुधिर वाहिकाएँ तीन प्रकार की होती हैं

  1. धमनियाँ (Arteries)
  • रुधिर को हृदय से विभिन्न अंगों में ले जाती हैं।
  • फेफड़ों में जाने वाली फुफ्फुसीय धमनियों (Pulmonary Arteries) के अतिरिक्त इनमें शुद्ध रक्त प्रवाहित होता है।
  • धमनियाँ शरीर में काफी गहराई में स्थित होती हैं।

महाधमनी (Aorta): यह शरीर की सबसे बड़ी धमनी है जो बाएँ निलय से शुद्ध रक्त शरीर में पहुँचाती है।

फुफ्फुसीय धमनी (Pulmonary Artery): यह दाएँ निलय से अशुद्ध रक्त फेफड़ों तक पहुँचाती    है।

  दायाँ अलिद: यह शरीर से अशुद्ध रक्त प्राप्त करता है।

बायाँ अलिं: बाएँ अलिंद में फेफड़ों से शुद्ध रक्त आकर बाएँ निलय में जाता है।

कभी-कभी नवजात शिशुओं में सायनोटिक हृदय रोग (हृदय की संरचनात्मक गड़बड़ी, जैसे-फोरामेन ओवेल का जन्मोपरांत भी बंद न होना आदि) के कारण उनके रक्त का पूर्ण तरीके से शुद्धिकरण (ऑक्सीजन से युक्त होना) नहीं हो पाता, जिससे उनकी त्वचा, नाखून, होंठ आदि का रंग असमान्य रूप से नीला पड़ जाता है। इसे ब्लू बेबी सिंड्रोम एवं ऐसे शिशुओं को ब्लू बेबी कहते है। अपर्याप्त ऑक्सीजन के कारण रंग का नीला पड़ जाना सायनोनिसभी कहलाता है। कभी-कभी फेफड़े द्वारा रक्त को शुद्ध न कर पाना भी इसका एक कारण होता है।

   सायनोसिस का एक अन्य कारण मिथेमोग्लोबिनेमिया (Methamoglobinemia) भी है। इसमें प्रदूषित भूमिगत जल से नाइट्रेट नवजात शिशुओं के शरीर में पहुँच जाता है जिससे उनके रक्त को ऑक्सीजन वहन क्षमता कमजोर पड़ जाती है एवं शरीर का रंग नीला पड़ जाता है।

  1. शिराएँ (Veins)
  • ये रुधिर को विभिन्न अंगों से हृदय में ले जाती है।
  • फुफ्फुसीय शिराओं के अतिरिक्त सबमें अशुद्ध रुधिर प्रवाहित होता है।
  • शिराएँ त्वचा के समीप पाई जाती है।

महाशिरा (Vena Cava): यह हृदय के दाहिने भाग को ऑक्सीजन की कमी वाले रक्त की आपूर्ति करता है। यह दो प्रकार का होता है- 1. अग्रमहाशिरा 2. पश्चमहाशिरा।

फुफ्फुसीय शिरा (Pulmonary Vein): यह शुद्ध रक्त फेफड़ों से बाएँ अलिंद में पहुँचाता है।

दायाँ निलयः यह अशुद्ध रक्त फुफ्फसीय धमनी में भेजता है।

बायाँ निलयः यहाँ से शुद्ध रक्त शरीर के सभी ऊतकों में पहुंचता है।

  1. रुधिर केशिकाएँ (Blood Capillaries) ये बहुत ही महीन रुधिर वाहिनियाँ होती हैं।
  • इनकी भित्ति की मोटाई केवल एक केशिका (Capillary) के स्तर की होती है।
  •  ये धमनियों को शिराओं से जोड़ती हैं।
  •  शिराओं में रुधिर का पश्च प्रवाह (Back Flow) रोकने के लिये वाल्व (Valves) पाए जाते हैं। बायाँ अलिंद, बाएँ निलय में एक छिद्र द्वारा खुलता है जहाँ एक वाल्व पाया जाता है। इसे द्विकपाटीय वाल्व(Bicuspid Valve) कहते हैं।
  • दायाँ अलिंद, बाएँ निलय में एक छिद्र द्वारा खुलता है जहाँ एक त्रिकपाटीय वाल्व (Tricuspid Valve) पाया जाता है।

हृदय के दाहिने कक्ष में अवस्थित सिनोएट्रियल नोड (SA Node) हृदय गति को नियंत्रित करता है। इसे प्राकृतिक पेस मेकर भी कहा जाता है।

हार्ट मरमरिंग (Heart Murmuring)

  • ये हृदय की वे ध्वनियाँ है जो हृदय कपाटों (Mitral valves) या हृदय के निकट स्थित रक्त शिराओं में रक्त प्रवाह के कारण उत्पन्न होती हैं।
  • बच्चों की तेज वृद्धि के समय इसका होना सामान्य है जो बड़े होने पर स्वयं चला जाता है।
  • कभी-कभी गर्भावस्था, उच्च रक्तचाप या बुखार के समय हृदय के तेज धड़कने से हृदय को अधिक मात्रा में रक्त प्रवाह को सँभालना पड़ता है। इस कारण भी हार्ट मरमरिंग होता है।
  • यह सामान्य मरमरिंग है एवं हानिरहित होता है।
  • परंतु जब मरमरिंग क्षतिग्रस्त या अतिकार्य किये हुए हृदय कंपाट के कारण होता है तो यह असमान्य मरमरिंग होता है जिसके लिये उपचार की आवश्यकता होती है।

रुधिर संरचना

रुधिर एक तरल संयोजी ऊतक है। जो मुख्यतः दो अवयवों से मिलकर बना होता है

  1. प्लाज्मा (Plasma)
  2. रुधिर कोशिकाएँ (Blood Cells)

प्लाज्मा (Plasma)

  • यह रंगहीन तरल है एवं इसका अधिकाधिक भाग (लगभग 90 प्रतिशत) जल होता है। इसमें अनेक प्रोटीन पाए जाते हैं।
  • यह CO हार्मोन्स एवं अपशिष्ट को ले जाने का कार्य करता है।
  • ग्लोब्यूलिन (Globulin), एल्ब्यूमिन (Albumin) एवं फाइब्रिनोजन (Fibrinogen), यकृत में बनने वाले प्लाज्मा प्रोटीन हैं।

रक्त कोशिकाएँ (Blood Cells)

ये मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं

  1. लाल रक्त कोशिकाएँ (Erythrocytes)
  2. श्वेत रक्त कोशिकाएँ (Leukocytes)
  3. प्लेटलेट्स (Platelets

लाल रुधिर कणिकाएं (R.B.Cs)

  • ये कोशिकाएँ गोलाकार होती हैं एवं इनमें केंद्रक अनुपस्थित होता है।
  • हीमोग्लोबिन नामक लाल वर्णक के कारण रुधिर का रंग लाल होता है।
  • ये O के वहन का कार्य करती हैं। इनका जीवन-काल लगभग 120 दिनों का होता है।
  • रक्त का सामान्य PH स्तर 7.35 से 7.45 के बीच होता है।

श्वेत रुधिर कणिकाएं (W.B.CS)

  • ये आकार की व केंद्रक युक्त होती हैं।
  • रुधिर में लाल रक्त कणिकाओं की अपेक्षा श्वेत रक्त कणिकाओं की संख्या कम होती है।
  • ये संक्रमण से शरीर की रक्षा करती हैं।
  • ये रक्त कोशिकाओं में सबसे बड़ी होती हैं।
  • WBC का जीवन-काल 1-4 दिनों का होता है।

लसीका कोशिकाएँ (Lymphocyte Cells) श्वेत रुधिर कणिकाओं के महत्त्वपूर्ण घटक हैं एवं ये सबसे छोटी WBC हैं। ये दो प्रकार की होती हैं- 1. B -लिम्फोसाइट 2. T-लिम्फोसाइट

  • इनका निर्माण लसीका गाँठो, प्लीहा (Spleen), थाइमस ग्रंथि तथा अस्थि मज्जा द्वारा किया जाता है।
  • ये एंटीबॉडी या प्रतिरक्षी प्रोटीन का निर्माण करती हैं और शरीर की प्रतिरक्षा तंत्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। AIDS होने पर इनकी संख्या बहुत कम हो जाती है।

प्लेटलेट्स (Platelets)

  • ये सूक्ष्म एवं रंगहीन होती हैं। इनमें केंद्रक नहीं पाया जाता। ये रुधिर स्कंदन (Blood Clotting), रक्त वाहिकाओं की मरम्मत तथा संक्रमण से शरीर की रक्षा में सहायक होते हैं।

रक्त कोशिकाओं (RBC, WBC, Platelets आदि) का निर्माण, जन्म से लेकर वयस्कों तक में लाल अस्थि मज्जा (Red Bone Marrow) में होता है।

प्लीहा को RBC की कब्रगाह भी कहते हैं क्योंकि यह मृत RBCs का निपटान करती है।

रुधिर का कार्य

परिवहन: O2, CO2, हार्मोन्स (Hormones) एवं अपशिष्टों (Wastes)का परिवहन।

रोगों से बचाव: रुधिर में उपस्थित प्रतिरक्षी (Antibodies) विषैले, बाहरी तथा असंगत पदार्थों को निष्क्रिय करके इनका विघटन कर देते हैं।

शरीर की सफाई: टूटी-फूटी, मृत कोशिकाओं के कचरे या मलबे आदि का W.B.Cs भक्षण कर नष्ट करते हैं।

शरीर ताप का नियंत्रण: जब अधिक सक्रिय भागों में तीव्र उपापचय (Metabolism) के फलस्वरूप रुधिर ताप बढ़ने लगता है तो रुधिर त्वचा की रुधिर वाहिनियों में अधिक मात्रा में बहकर शरीर ताप का नियंत्रण करते हैं।

थक्का जमनाः घाव पर रुधिर के धक्का जमने से रुधिर का बहाव बंद होता है।

रुधिर का थक्का जमना (Coagulation of Blood)

  • रुधिर का थक्का जमना एक जटिल प्रक्रिया है। रुधिर के जमने के प्रमुख चरण निम्न हैं
  • सामान्यतः रुधिर, रुधिर वाहिनी में नहीं जमता परंतु जब क्षतिग्रस्त रुधिर वाहिका से रक्त बहने लगता है तो उसमें उपस्थित प्लेटलेट्स थ्रोम्बोप्लास्टिन नामक पदार्थ स्राव करती हैं।
  • क्षत ऊतक +प्लेटलेट्स = थ्रोम्बोप्लास्टिन का स्राव
  • थ्रोम्बोप्लास्टिन एवं कैल्शियम की उपस्थिति में रुधिर में उपस्थित प्रोथ्रोम्बिन नामक पदार्थ ‘थ्रोम्बिन’ में परिवर्तित हो जाता है।
  • थ्रोम्बिन प्लाज्मा में उपस्थित फाइब्रिनोजन को उत्प्रेरित करता है और उसे फाइब्रिन नामक अघुलनशील तंतुओं में बदल देता है।
  • फाइब्रिन के तंतु एक जाल बनाते हैं जिसमें रुधिर कणिकाएँ फँस जाती हैं और रक्त का थक्का बन जाता है।
  • फाइब्रिन+ R.B.Cs →रुधिर का थक्का

रुधिर वर्ग (Blood Groups )

सर्वप्रथम कार्ल लैंडस्टीनर (Karl Landsteiner) ने ज्ञात किया कि सभी मनुष्यों में रुधिर एक समान नहीं होता। मनुष्य का रुधिर, लाल रुधिर कणिकाओं में पाए जाने वाले एक विशेष प्रकार के प्रोटीन, एंटीजन्स(Antigens) के कारण भिन्न होता है।

रुधिर के एंटीजन्स तथा एंटीबॉडी (Antigens and Antibodies of Blood) : लैंडस्टीनर ने बताया कि मनुष्य के शरीर में गलत रुधिर आधान (Blood Transfusion) के कारण होने वाले अभिश्लेषण (Agglutination रक्त के अवयवों का चिपकना) दो विशेष प्रकार के प्रोटीन के कारण होता है जिन्हें एंटीजन्स तथा एंटीबॉडी कहते हैं।

एंटीजन्स (Antigens)

  • इन्हें ऐग्लुटीनोजेन्स (Agglutinogens) भी कहते हैं, ये सदैव लाल रुधिर कणिकाओं की प्लाज्मा मेम्ब्रेन (Plasma Membrane) में लगे हुए पाए जाते हैं।
  • एंटीजन्स ग्लाइकोप्रोटीन (Glycoprotein) होते हैं तथा ये पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित अर्थात् वंशागत (Inherited) होते हैं।
  • मनुष्य में एंटीजन (Antigen) दो प्रकार के होते हैं
  • एंटीजन – A
  • एंटीजन- B

एंटीबॉडीज (Antibodies)

  • इन्हें ऐग्लुटिनिन्स (Agglutinins) भी कहते हैं।
  • ये रुधिर प्लाज्मा (Blood Plasma) या सीरम (Serum) में पाए जाते हैं।
  • एंटीबॉडी WBC में संश्लेषित गामा ग्लोब्यूलिन (Gamma Globulin )प्रोटीन के रूपांतरण के फलस्वरूप संश्लेषित होता है।

मनुष्य में रुधिर वर्ग या ABO सिस्टम(Blood Group or ABO System in Human)

  • लैंडस्टीनर के अनुसार ABO रुधिर वर्ग सिस्टम के अंतर्गत ग्लाइकोप्रोटीनों की उपस्थिति के आधार पर मनुष्य में चार रुधिर वर्ग (Blood Groups) पाए जाते हैं।
  • 1. रुधिर वर्ग ‘A’  2. रुधिर वर्ग ‘B’   3. रुधिर वर्ग ‘AB’  4. रुधिर वर्ग ‘O’
  • उपयुक्त चारों रुधिर वर्गों में से, A, B तथा O वर्ग की खोज कार्ल लैंडस्टीनर ने 1900 ई. में की थी तथा रुधिर वर्ग AB की खोज डीकैस्टेलो तथा स्टर्ली (Decastello and Sturli) ने की थी।

मनुष्य में रक्त का आधान (Blood Transfusion in Human)

  • यदि मनुष्य में एंटीजन A है तो उसमें एंटीबॉडी 6 पाया जाता है तथा यदि मनुष्य में एंटीजन B है तो एन्टीबॉडी पाया जाता है।
  • इस स्थिति में रक्त का अभिश्लेषण (Agglutination- चिपकना) नहीं होता।
  • लेकिन यदि रुधिर वर्ग A वाले व्यक्ति को रुधिर वर्ग B का रक्त के दिया जाए तो ऐसी स्थिति में रुधिर ग्रहण करने वाले व्यक्ति के रुधिर में एंटीजन तथा एंटीबॉडी एक दूसरे के अनुरूप (एंटीजन A तथा एंटीबॉडी a एंटीजन B तथा एंटीबॉडी b) हो जाता है और रक्त का अभिश्लेषण हो जाता है।
  • इस रक्त के अभिश्लेषण के कारण रुधिर वाहिनियों (Blood Vessels) में अवरोध उत्पन्न हो जाता है और व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है।

यही कारण है कि रुधिर आधान (खून चढ़ाना) के समय रुधिर वर्ग का मिलान किया जाता है।

  • रुधिर वर्ग ‘O’ वाले व्यक्ति का रुधिर सभी रुधिर वर्गों वाले व्यक्तियों को दिया जा सकता है।
  • अतः O रुधिर वर्ग को सार्वत्रिक दाता (Universal Donor) कहा जाता है।
  • रुधिर वर्ग ‘AB’ वाले व्यक्ति को किसी भी रुधिर वर्ग वाले व्यक्ति का रुधिर दिया जा सकता है।
  • अत: ‘AB’ रुधिर वर्ग को सार्वत्रिक ग्राही (Universal Recipient) कहा जाता है।

रुधिर वर्ग के जीन्स (Genes of Blood Group): मनुष्य की संततियों (Offsprings) की लाल रुधिर कणिकाओं (RBCs) में बनने वाले एंटीजन का निर्धारण जीन्स करते हैं। इन जीन्स को अभिव्यक्ति अंग्रेजी के I अक्षर से की जाती है।

  • I का अर्थ आइसोहीमेग्ल्यूटिनीन (Isohemagglutinin) होता है। इसे निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त करते हैं-
  • IAयह एंटीजन A का निर्धारण करता है (प्रभावी जीन)
  • IB—यह एंटीजन B का निर्धारण करता है (प्रभावी जीन)
  • IO– यह किसी भी एंटीजन का विकास नहीं करता है (अप्रभावी जीन)
  • किंतु जिस संतान या संतति को माता-पिता से IAMP जीन्स प्राप्त होंगे उसमें एण्टीजन A तथा एंटीजन B दोनों होंगे, क्योंकि ये जोन समान रूप से प्रभावी होते हैं। अतः संतान का रुधिर वर्ग AB होगा।

जो संतति IOIO जीन्स प्राप्त करेगी उसमें कोई भी एन्टीजन नहीं होंगे पर उसका रुधिर वर्ग O होता है।

माता-पिता     बच्चों में               बच्चों में

का            संभावित             असंभावित

रक्त समूह     रक्त समूह         रक्त समूह

O x O         O                        A, B, AB

O x A        O,A                      B,AB

O x B        O,B                    A,AB

O × AB    A,B                      O,AB

A x A        A,O                      B,AB

A x B        A,B,O,AB           कोई नहीं

B x B        B,O                       A,AB

B x AB     A,B,AB                 O

AB x AB    A, B, AB            O

Rh कारक या एंटीजन (Rh Factor or Antigen)

  • इस एंटीजन की खोज कार्ल लैंडस्टीनर तथा वीनर (1940) ने रीसस बंदर (Rhesus Monkey) की लाल रुधिर कणिकाओं में ज्ञात किया था।
  • यह कारक मनुष्य में भी पाया जाता है।

Rh कारक के आधार पर मनुष्यों का वर्गीकरण

(a) Rh पॉजीदिव (Rh): जिन मनुष्यों की RBCs में यह Rh एंटीजन उपस्थित होता है, उन्हें Rh मनुष्य कहते हैं।

(b) Rh निगेटिव (Rh): जिन मनुष्यों की RBCs में यह Rh एंटीजन अनुपस्थित होता है उन्हें Rh मनुष्य कहते हैं।

Rh+ रुधिर का आधान (Transfusion of Rh Blood): सामान्यतः मनुष्य के रुधिर प्लाज्मा में Rh एंटीजन का एंटीबॉडी Rh नहीं पाया जाता किंतु यदि रुधिर आधान में किसी Rh व्यक्ति को किसी Rh का रुधिर चढ़ाया जाता है तब उस समय उस ग्राही (Recipient) के लिये Rh एंटीजन फॉरेन बॉडी (Foreign body) की तरह कार्य करता है जिससे ग्राही व्यक्ति (Rh) के रुधिर में Rh एंटीजन से प्रतिक्रिया करने के लिये Rh एंटीबॉडी का निर्माण हो जाता है। इस अवस्था में ग्राही व्यक्ति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता।

  •     पुनः आवश्यकता पड़ने पर ग्राही व्यक्ति (Rh) में, जिसके रुधिर में Rh एंटीबॉडी का निर्माण हो चुका है, को किसी Rh व्यक्ति का रुधिर चढ़ाने पर इन Rh एंटीबॉडी के कारण दाता (Donor) या Rht व्यक्ति की लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCs) ग्राही के रुधिर में समूह के रूप में चिपकने लगती हैं तथा रुधिर कणिकाओं का समूहन हो जाता है जिससे रक्त का थक्का बनने के कारण रुधिर परिसंचरण रुक जाने से ग्राही की मृत्यु हो जाती है।
  •     अतः रुधिर आधान में अन्य एंटीजेन्स (Antigens) की भाँति Rh एंटीजन को ज्ञात करना आवश्यक होता है।

Rh एंटीजन की वंशागति (Inheritance of Rh Antigen) Rh लक्षण Rh लक्षण पर प्रबल (Dominant) होता है।

एरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस (Erythroblastosis Fetalis): यह Rh कारक से संबंधित रोग है जो केवल गर्भावस्था में शिशुओं में होता है। इससे प्रभावित शिशु की गर्भावस्था में ही मृत्यु हो जाती है। ऐसे शिशु सदैव Rh तथा इनकी माता Rh तथा पिता Rh होते हैं।

रोग के कारण: Rh पॉजीटिव पुरुष तथा Rh निगेटिव स्त्री में विवाह होने पर इनसे उत्पन्न होने वाली संतति की भ्रूणावस्था (Embryonic Stage) के परिवर्धन काल में भ्रूण की RBCs से Rh कारक या एंटीजन, प्लेसेंटा (Placenta) से होकर माता के रुधिर में पहुँच जाता है। अब माता के रुधिर में इस बाहरी Rh कारक या एंटीजन के विरुद्ध एंटीबॉडी का निर्माण हो जाता है।

  •   सामान्यतः प्रथम गर्भ के शिशु को विशेष हानि नहीं होती, क्योंकि इस समय तक माता के रुधिर में Rh एंटीबॉडी की थोड़ी ही मात्रा बन पाती है, किंतु बाद में माता के रुधिर में Rh एंटीबॉडी के अधिक बन जाने के कारण अन्य गर्भ के Rh शिशुओं में इस रोग की संभावना प्रबल होती है। इस स्थिति में माता के रुधिर के Rh एंटीबॉडी, भ्रूण (Embryo) के RBCs के Rh एंटीजन के साथ मिलकर रुधिर का थक्का (Clot) बना देते हैं जिससे भ्रूण के रुधिर का समूहन हो जाता है तथा भ्रूण की मृत्यु हो जाती है।

उपचार– इरिथ्रोब्लास्टोसिस फीटेलिस रोग के उपचार के लिये रुधिर प्लाज्मा से तैयार किये गए इम्यूनोग्लोब्युलिन (Immunoglobulin = IgG), जिसमें अत्यन्त प्रभावकारी rh- एंटीबॉडी होता है, की कुछ मात्रा माता के रुधिर में इंजेक्ट की जाती है। यह इम्यूनोग्लोब्युलिन उन Rh एंटीजन को नष्ट कर देता है जो भ्रूण से प्लासेन्टा के माध्यम से माता के रुधिर में पहुँच जाते हैं।

लसीका (Lymph)

  • लसीका रुधिर वाहिनियों तथा ऊतकों के मध्य खाली स्थान में एक रंगहीन, स्वच्छ तरल पदार्थ के रूप में पाया जाता है।
  • रुधिर प्लाज्मा रुधिर केशिकाओं की पतली दीवार से छनकर ऊतक कोशिकाओं के संपर्क में आ जाता है. इस छने हुए द्रव को लसीका या ऊतक द्रव कहते हैं।
  • लसीका में लाल रुधिर कणिकाएँ (RBCs) नहीं पाई जातीं।
  • इसमें WBCs अधिक मात्रा में पाई जाती हैं।
  • इसमें ऑक्सीजन तथा पोषक पदार्थों की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है।
  • इसमें CO2 तथा उत्सर्जी पदार्थों की मात्रा अधिक होती है।
लसीका के कार्य (Function of Lymphs)
  • यह कोशिका ऊतकों से CO, एवं अन्य हानिकारक पदार्थ लेकर रुधिर तक पहुँचता है।
  • कोशिकाओं तक पोषक तत्त्वों, गैसों, हार्मोन्स तथा एंजाइम्स आदि को पहुँचाने का कार्य करता है।
  • लसीका अंगों व लसीका ग्रंथियों में लिम्फोसाइट्स का निर्माण होता है, जो जीवाणुओं का भक्षण करती है।
  • यह कोमल अंगों की रक्षा करने तथा उन्हें रगड़ से बचाने में सहायक है।
  • मनुष्य में शुद्ध एवं अशुद्ध रक्त अलग-अलग प्रवाहित होता है,
  • अतः मनुष्य में दोहरा रुधिर परिवहन पथ पाया जाता है।

उत्सर्जन तंत्र (Excretory System)

मानव के उत्सर्जी तंत्र का मुख्य कार्य अपशिष्ट को शरीर से बाहर निकालना है। मनुष्य के उत्सर्जन तंत्र में निम्नलिखित अंग आते हैं

  1. वृक्क (Kidney)
  2. फेफड़ा (Lungs)
  3. त्वचा (Skin)
  4. यकृत (Liver)
  5. बड़ी आँत (Large Intestine)

मनुष्य में मूत्राशय तंत्र (Urinary System) एक जोड़ी वृक्क (Kidney), एक जोड़ी मूत्र नलिका, एक मूत्राशय और एक मूत्र मार्ग का बना होता है।

वृक्क (Kidney)

  • मनुष्य में वृक्क सेम के बीज की आकृति के गहरे भूरे लाल रंग के होते हैं।
  • प्रत्येक वृक्क में लगभग 10 लाख सूक्ष्म एवं लंबी व कुंडलित नलिकाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें वृक्काणु (नेफ्रान) कहते हैं।
  • नेफ्रान वृक्क की संरचनात्मक एवं कार्यात्मक इकाई होती है।
  • वृक्क के दो मुख्य कार्य हैं- उत्सर्जन एवं परासरण नियमन।

वृक्क में पथरी (Kidney Stone), यूरिक अम्ल (Uric Acid), कैल्शियम ऑक्सलेट (Calcium Oxalate) तथा कैल्शियम फॉस्फेट (Calcium  Phosphate) के कारण बनती है।

उत्सर्जन (Excretion)

  • वृक्क यूरिया को पानी में घुले मूत्र के रूप में शरीर से बाहर निकालता है।
  • यूरिया आदि उत्सर्जी पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिये वृक्क ही मुख्य अंग है।
  • यह रक्त का शुद्धिकरण करता है। रक्त के शुद्धिकरण की प्रक्रिया डायलिसिस कहलाती है।
  • यदि किसी कारण वृक्क (Kidney) कार्य करना बंद कर दे तो शरीर में नाइट्रोजनी अपशिष्ट, जैसे यूरिया, यूरिक अम्ल इत्यादि की मात्रा बढ़ जाएगी।
  • ऐसी परिस्थिति में कृत्रिम यंत्र की सहायता से इन अपशिष्ट पदार्थों को निकाला जाता है। जिसे कृत्रिम डायलिसिस कहते हैं।
  • इसका हल्का पीला रंग ‘यूरोक्रोम’ नामक वर्णक के कारण होता है।
  • मूत्र का सामान्य घटक जल, लवण, यूरिया व यूरिक अम्ल है। कीटोन और एल्ब्युमिन असामान्य घटक है।

परासरण नियमन (Osmoregulation)

शरीर में लवण एवं जल की मात्रा का नियंत्रण वृक्कों का एक महत्त्वपूर्ण कार्य है।

मनुष्य में अन्य उत्सर्जी अंग

मनुष्य एवं सभी कशेरुकी प्राणियों में वृक्कों के अलावा अन्य अंग भी उत्सर्जन में मदद करते हैं। जैसे- यकृत, त्वचा, फेफड़े आदि।

यकृत (Liver)

  • यकृत विशेष एंजाइमों की सहायता से आवश्यकता से अधिक अमोनिया (NH) को यूरिया में परिवर्तित कर देता है जो अमोनिया से कम हानिकारक होता है।
  • यकृत में मृतक R. B.Cs के हीमोग्लोबीन के टूटने के कारण पित्त वर्णक (Bile Pigment) का निर्माण होता है।
  • पित्त वर्णक पित्त रस के साथ आंत्र में पहुँचकर विष्ठा के साथ शरीर से बाहर निकलते हैं।

त्वचा (Skin)

  • त्वचा की स्वेद ग्रंथियाँ रुधिर से जल, लवण एवं यूरिया लेकर पसीने के रूप में शरीर से बाहर निकलती है।
  • साथ ही तैलीय ग्रंथियों से स्रावित सीबम भी अनेक उत्सर्जी पदार्थों को बाहर निकालता है।

फेफड़े (Lungs)

  • फेफड़े श्वसन क्रिया के अंतर्गत श्वास छोड़ने की प्रक्रिया में रुधिर में घुली CO, का उत्सर्जन करते हैं। साथ ही यह जलवाष्प का भी उत्सर्जन करते हैं।

तंत्रिका तंत्र (Nervous System)

  • मानव शरीर में सभी अंगों के कार्यों का नियंत्रण संचालन व समन्वय ‘तंत्रिका तंत्र’ तथा ‘अंतःस्रावी तंत्र’ द्वारा किया जाता है मानव का तंत्रिका तंत्र दो भागों में विभाजित होता है- केंद्रीय तंत्रिका तंत्र और परिधीय तंत्रिका तंत्र।

केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (Central Nervous System)

  • केंद्रीय तंत्रिका तंत्र शरीर की विविध क्रियाओं का नियंत्रण एवं नियमन करता है।
  • मस्तिष्क हमारे शरीर का केंद्रीय सूचना प्रसारण अंग है और यह ‘आदेश एवं नियंत्रण’ तंत्र की तरह कार्य करता है।
  • यह शरीर के संतुलन, तापमान नियंत्रण, भूख एवं प्यास, प्रमुख अनैच्छिक अंगों के कार्य (जैसे वृक्क, हृदय, फेफड़े), अनेक अंतःस्रावी ग्रंथियों के कार्य एवं मानव व्यवहार का नियंत्रण करता है।
  • यह दो भागों से मिलकर बना होता है- मस्तिष्क एवं मेरूरज्जु ।

मस्तिष्क (Brain)

एक वयस्क मनुष्य के मस्तिष्क का भार लगभग 3 पाउंड या 1300-1400 ग्राम होता है तथा यह उसके संपूर्ण भार का लगभग 2 प्रतिशत होता है। मस्तिष्क को तीन मुख्य भागों में विभाजित किया जाता है- अग्र मस्तिष्क, मध्य मस्तिष्क और पश्च मस्तिष्क या अनुमस्तिष्क ।

अग्र मस्तिष्क (Forebrain)

यह मस्तिष्क का लगभग दो-तिहाई भाग बनाता है। यह दो भागों में बँटा होता है- 1. सेरीब्रम 2. डाइएनसिफलॉन ।

(a) सेरीब्रम या प्रमस्तिष्क (Cerebrum)

यह दो गोलाद्धों का बना होता है जिन्हें सेरीब्रम अर्द्ध-गोलार्द्ध कहते हैं। सेरीब्रम में देखने, स्पर्श करने, सूंघने के अलग-अलग केंद्र होते हैं। यह मनुष्य की चेतना एवं तर्क तथा बुद्धि का भी केंद्र होता है। इसके अधिक विकसित होने पर मनुष्य अधिक बुद्धिमान होता है।

(b) डाइएनसिफलॉन (Diencephalon) इससे पिट्यूटरी ग्रंथि तथा पीनियल काय जुड़ा होता है। थैलेमस तथा हाइपोथैलमस इसी के भाग हैं।

थैलेमस (Thalamus):

  • डाइएनसिफलॉन का ऊपरी भाग थैलेमस कहलाता है।
  • इसी भाग से पिनियल ग्रंथि (Pineal Gland) जुड़ी होती है।
  • यह ग्रंथि मेलाटोनिन हार्मोन्स का स्राव करती है जो नींद के लिये उत्तरदायी होता है।
  • थैलेमस घ्राण संवेदनाओं के अतिरिक्त, शरीर के समस्त भागों से सीधे या सुषुम्ना के माध्यम से तथा मस्तिष्क के विविध भागों से संवेदी प्रेरणाओं की ग्रहण करता है।
  • इन संवेदी सूचनाओं में श्रवण, स्वाद, दृष्टि, दबाव आदि की सूचनाएँ होती हैं,
  • थैलेमस के कुछ केंद्रकों की भूमिका स्मृति, भावुकता तथा बोध ज्ञान में होती है।

हाइपोथैलेमस (Hypothalamus): डाइएनसिफलॉन का निचला भाग हाइपोथैलेमस कहलाता है। यह शरीर की अनेक क्रियाओं पर नियंत्रण करता है तथा समस्थैतिकता (Homeostasis) में इसका बहुत महत्त्व होता है।

  •  इसकी तंत्रिकास्रावी कोशिका द्वारा स्रावित हॉरमोन्स पीयूष ग्रंथि की स्रवण क्रिया को नियंत्रित करता है।
  • इसमें भूख प्यास तथा परितृप्ति के केंद्र होते हैं।
  • शरीर का ताप, रक्तचाप, निद्रा, प्रजनन क्षमता, हृदय की धड़कन आदि भी इसके द्वारा ही नियंत्रित होते हैं।
मध्य मस्तिष्क (Midbrain)

यह भी दो भागों का बना होता है-

सेरीब्रम पिंडकलः यह मध्य मस्तिष्क का अग्रभाग है। यह तंतुओं का बना होता है।

कॉर्पोरा क्वार्डीजेमिना: यह मध्य मस्तिष्क का पश्चभाग है। यह चार ठोस पिंडों का बना होता है। यह दृष्टि ज्ञान से संबंधित होता है। इससे दृष्टि तंत्रिकाएँ निकलकर नेत्रों को जाती हैं।

मध्य मस्तिष्क का कार्य दृष्टि, श्रवण एवं प्रतिवर्ती क्रियाओं पर नियंत्रण करना है।

पश्च मस्तिक(Hindbrain)

यह सेरीबेलम तथा मेड्यूला ऑब्लांगेटा का बना होता है।

सेरीबेलम (Cerebellum): यह मानव मस्तिष्क का दूसरा सबसे बड़ा भाग होता है। यह बड़ी, ठोस एवं जटिल संरचना होती है तथा सेरीब्रम के ठीक नीचे पश्च भाग में मिलता है। यह गति नियंत्रण, समन्वय, शरीर का संतुलन तथा एच्छिक पेशियों की क्रिया का निगमन करता है।

मेड्यूला ऑब्लांगेटा (Medulla Oblongata): यह मस्तिष्क का सबसे पीछे का त्रिभुजाकार भाग होता है। यह भोजन को निगलने एवं उल्टी जैसी क्रियाओं का केंद्र है। इसके अलावा यह शरीर की सभी अनैच्छिक क्रियाओं का केंद्र है। जैसे हृदय स्पंदन की दर श्वसन इत्यादि ।

मेरुरज्जु (Spinal Cord)

मेड्यूला ऑब्लागेटा के महारध से निकलकर तंत्रिका नाल से होता हुआ अंत तक फैला रहता है, जिसे रीढ़ रज्जु या मेरुरज्जु कहते हैं।

मेरुरज्जु का कार्य

  • यह प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex Actions) का मुख्य केंद्र है।
  • यह अनैच्छिक क्रियाओं को संतुलित करता है।

परिधीय तंत्रिका तंत्र (Peripheral Nervous System)

  • केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को शरीर के विभिन्न संवेदी एवं क्रियात्मक भागों (विभिन्न अंगों, पेशियों आदि) से जोड़ने वाली धागेनुमा तंत्रिकाएँ, परिधीय तंत्रिका तंत्र बनाती है।
  • मनुष्य में परिधीय तंत्रिका तंत्र 12 जोड़ी कपालीय तंत्रिकाएँ एवं 31 जोड़ी मेरुरज्जु तंत्रिकाओं से बना है।
  • परिधीय तंत्रिका तंत्र दो भागों में विभाजित होता है
  • कायिक तंत्रिका तंत्र (Somatic Nervous System) एवं स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (Autonomic Nervous System)
  • कायिक तंत्रिका तंत्र उद्दीपनों को केंद्रीय तंत्रिका तंत्र से शरीर के ऐच्छिक अंगों एवं चिकनी पेशियों में पहुँचाता है।

स्वायत्त तंत्रिका तंत्र (Autonomous Nervous System) विभिन्न प्रकार की अनैच्छिक क्रियाओं को सुचारु रूप से चलाने के लिये स्वायत्त तंत्रिका तंत्र होता है। इस तंत्र की तंत्रिकाएँ उन अंगों के कार्यों पर नियंत्रण करती हैं जो हमारी इच्छा के अधीन कार्य नहीं करते। जैसे- श्वसन, हृदय की धड़कन, पाचन आदि। इसे दो भागों में विभाजित किया जाता है- अनुकंपी (Sympathetic) तथा परानुकंपी (Para- Sympathetic) तंत्रिका तंत्र।

दोनों तंत्र केंद्रीय तथा परिधीय तंत्रों से पूर्णतया स्वतंत्र नहीं होते क्योंकि इनका निर्माण केंद्रीय एवं परिधीय तंत्रिका तंत्रों द्वारा ही होता है।

प्रतिवर्ती क्रियाएँ (Reflex Action)

  • मुख्यतः मस्तिष्क में ही ज्ञानेंद्रियों द्वारा प्राप्त उद्दीपनों का विश्लेषण होता है।
  • प्रमस्तिष्क से नियंत्रित क्रियाओं को ऐच्छिक क्रियाएँ कहते हैं।
  • परंतु बाह्य उद्दीपनों के प्रति बहुत सी क्रियाएँ मस्तिष्क के सहयोग के बिना भी होती है, ये क्रियाएँ अनैच्छिक क्रियाएँ होती हैं एवं इनका
  • नियंत्रण मेरुरज्जु द्वारा होता मस्तिष्क क्रियाओं पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
  • इन्हें प्रतिवर्ती क्रियाएँ कहते हैं। उदाहरण- यदि अनजाने में आपका हाथ किसी गर्म चीज से छू जाता है तो आप तुरंत हाथ हटा लेते हैं।
  • इस प्रकार की सभी क्रियाओं को प्रतिवर्ती क्रियाएँ कहते हैं।

कंकाल तंत्र (Skeletal System)

  • कंकाल तंत्र का शरीर की गति में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
  • यह अस्थियों एवं उपास्थियों का ढाँचा होता है।
  • कंकाल तंत्र के मुख्यत: दो भाग होते हैं- बाह्य कंकाल तंत्र एवं अंत: कंकाल तंत्र।

बाह्य कंकाल तंत्र (Exoskeleton)

इसमें हमारे बाल और नाखून आते हैं। नाखून का अगला हिस्सा मृत कोशिकाओं से बने रहते हैं। इनमें रक्त संचरण नहीं होता।

Skeletal System

अंतः कंकाल तंत्र (Endoskeleton)

  • इसमें हमारे शरीर के भीतर का अस्थिपंजर आता है।
  • यह अस्थि एवं उपास्थि का बना होता है।
  • अस्थि एवं उपास्थि विशेष प्रकार के संयोजी ऊतक होते हैं।
  • मनुष्य का कंकाल तंत्र 206 अस्थियों (Bones) एवं कुछ उपास्थियों (Cartilages) का बना होता है।

अस्थि (Bone)

  • व्यस्क मनुष्य में 206 हड्डियाँ होती हैं।
  • जन्म के समय शिशुओं में लगभग 300 हड्डियाँ होती हैं।
  • कैल्शियम फॉस्फेट, अस्थि का महत्त्वपूर्ण अवयव होता है।
  • कोलेजन प्रोटीन अस्थि का लगभग 33 प्रतिशत बनाती है।
  • उम्र बढ़ने के साथ अस्थि में प्रोटीन की मात्रा कम होती जाती है जो इसे अधिक भंगुर (Brittle) बनाती है।
  • लंबी एवं मोटी अस्थियों के बीच में एक खोखली गुहा (Hollow Cavity) भी पाई जाती है, जिसे मज्जा गुहा (Marrow Cavity) कहा जाता है।
  • इस गुहा में एक तरल पदार्थ उपस्थित होता है, जिसे अस्थि मज्जा (Bone Marrow) कहा जाता है।
  • अस्थियों की सामान्य वृद्धि के लिये विटामिन D आवश्यक होता है।
  • बच्चों में विटामिन डी की कमी से ‘रिकेट्स’ (Rickets) व वयस्कों में विटामिन डी की कमी से ‘ऑस्टियोमलेसिया’ (Osteomlacia) नामक रोग हो जाता है।
  • ‘ऑस्टियोमाइलिटिस’ (Osteomyelitis) अस्थियों में होने वाला दर्द युक्त जीवाणु संक्रमण होता है, जो स्टैफिलोकोकस (Staphylococcus) नामक जीवाणु द्वारा होता है
  • मानव शरीर में सबसे बड़ी अस्थि ‘फीमर’ (जाँघ की अस्थि) तथा सबसे छोटी ‘स्टेप्स’ (कान की हड्डी) होती है।
  • अस्थि से अस्थि के जोड़ को ‘लिगामेंट्स’ तथा मांसपेशी एवं अस्थि के जोड़ को ‘टेंडन’ कहते हैं।

मानव कंकाल के भाग

अध्ययन की सुविधा हेतु मानव कंकाल को दो भागों में बाँटा गया है

अक्षीय कंकाल (Axial Skeleton):80 अस्थियाँ

+

उपागीय कंकाल (Appendicular Skeleton): 126 अस्थियाँ

=

कुल 206

human Skeleton System

कंकाल तंत्र के रोग

गठिया (Gout)

  • गढ़िया शरीर की अस्थियों की जोड़ों से संबंधित एक रोग है। इस रोग में जोड़ों के ऊपर की त्वचा पर सुजन, लालिमा (Redness) तथा दर्द होता है।
  • पैर के अंगूठे से संबंधित मामले में गठिया को पोडेग्रा (Podagra) कहा जाता है। लगभग 50 प्रतिशत मामलों में पैर के अँगूठे (big toe) की मेटाटार्सल फैलेंजीयल संधि (Metatarsal Phalangeal Joint) प्रभावित होती है।
  • गठिया रोग होने का कारण शरीर के रक्त (Blood) में यूरिक अम्ल (Uric acid) के स्तर का बढ़ जाना है। यह यूरिक अम्ल, क्रिस्टलों के रूप में जोड़ों, टेंडन तथा जोड़ों के आसपास के ऊतकों में जमा हो जाता है।
  • गठिया को ‘राजाओं की बीमारी’ अथवा ‘धनी लोगों की बीमारी’ भी कहा जाता है।

ऑर्थराइटिस (Arthritis) या संधि शोध

  • यह जोड़ों से संबंधित एक रोग है जिसमें हड़ियों के जोड़ों के स्थान पर सूजन आ जाती है, त्वचा लाल हो जाती है तथा अक्सर जोड़ों में दर्द रहता है।

ऑस्टियोपोरोसिस (Osteoporosis)

  • यह एक बढ़ती उम्र से संबंधित बीमारी है जिसमें हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं तथा उनके टूटने की संभावना बढ़ जाती है।
  • ऑस्टियोपोरोसिस में अस्थि खनिज घनत्व (Bone Mineral Density-BMD) कम हो जाता है। हड्डियों की प्रोटीन की मात्रा एवं प्रकार असामान्य हो जाते हैं।
  • यह रोग हार्मोन (एस्ट्रोजन) की कमी, कैल्शियम एवं विटामिन डी की कमी आदि के कारण होता है। इस रोग को निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जाता है

प्राथमिक आस्टियोपोरोसिस (Primary Osteoporosis)

यह निम्न दो प्रकार का होता है

(i)टाइप 1: महिलाओं में रजोनिवृत्ति (Menopause) के बाद इसके होने की संभावना रहती है।

(ii)टाइप 2 : यह बीमारी स्त्री एवं पुरुष दोनों में 75 वर्ष की आयु के बाद होती है। परंतु महिलाओं में होने की संभावना ज्यादा रहती है।

द्वितीयक ऑस्टियोपोरोसिस (Secondary Osteoporosis)

  • यह स्त्री एवं पुरुष दोनों को किसी भी आयु में हो सकती है।

आर्थराइटिस या अन्य कारणों से अस्थियों के जोड़ सही रूप से कार्य नहीं कर पाते। इन जोड़ों को आर्थोप्लास्टी करके पुनः ठीक किया जाता है।

ग्रंथियाँ (Glands)

  • ये मानव शरीर के ऐसे अंग हैं जो स्रावी कोशिकाओं से बने होते हैं तथा विभिन्न प्रकार के तरल पदार्थों का स्राव करते हैं।
  • अंतःस्रावी विज्ञान (Endocrinology) के जनक ‘थॉमस एडीसन’ हैं।
  • अंतःस्रावी तंत्र से संबंधित सर्वप्रथम ज्ञात रोग एडिसन रोग है जो एड्रीनल ग्रंथि से संबंधित है।

विभिन्न प्रकार की ग्रंथियाँ

कशेरुकी प्राणियों में तीन प्रकार की ग्रंथियाँ पाई जाती हैं-

 बहिःस्रावी ग्रंथियाँ (Exocrine Gland)

ये नलिकायुक्त ग्रंथियाँ होती हैं। इनके द्वारा स्रावित तरल नलिकाओं द्वारा संबंधित अंग में पहुँच जाता है। जैसे- लार ग्रंथि, स्वेद ग्रंथि, तेल ग्रंथि आदि।

अंतःस्रावी ग्रंथियाँ (Endocrine Gland)

ये नलिकाविहीन होती हैं। इनके द्वारा स्रावित तरल ‘हार्मोन्स’ कहलाता है जो रक्त द्वारा वितरित होता है। थाइरॉइड पीयूष ग्रंथि आदि अंतःस्रावी ग्रंथियाँ हैं।

मिश्रित ग्रंथियाँ (Mixed Gland)

  • ये वाहिकायुक्त ग्रंथियाँ हैं। इनका एक भाग अन्त: स्रावी तथा दूसरा भाग बहिःस्रावी होता है।
  • जैसे- अग्नाशय हार्मोन शब्द का विधिवत् उपयोग ‘स्टारलिंग (Ernest H. Starling 1905)’ ने किया था।
  • हक्सले ने इन्हें ‘रासायनिक संदेशवाहक’ कहा था। सर्वप्रथम खोजा गया हार्मोन ‘सिक्रीटीन’ था।

एंजाइम्स तथा हार्मोन्स (Enzymes and Hormones)

  • हार्मोन सूक्ष्म मात्रा में उत्पन्न होने वाले वैसे रसायन हैं जो अंतरकोशकीय संदेशवाहक के रूप में कार्य करते हैं।
  • जबकि एंजाइम्स जैविक उत्प्रेरक होते हैं जो जैव रासायनिक अभिक्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं।

मनुष्य में पाई जाने वाली मुख्य अंतःस्रावी ग्रंथियाँ निम्नलिखित हैं-

  1. पीयूष ग्रंथि
  2. थायरॉइड ग्रंथि
  3. पैराथायरॉइड ग्रंथि
  4. अधिवृक्क ग्रंथि
  5. पीनियल ग्रंथि
  6. थाइमस ग्रंथि
  7. अग्न्याशय
  8. जनन अंग

पीयूष ग्रंथि (Pituitary Gland)

  • यह मानव शरीर की सबसे छोटी अंतःस्रावी ग्रंथि होती है।
  • पीयूष ग्रंथि कपाल की स्फीनॉएड हड्डी की ‘सेला टर्सिका’ नामक अस्थिगुहा में स्थित होती है, जो हाइपोथैलेमस से एक वृत (Stalk) द्वारा जुड़ी रहती है।
  • पीयूष ग्रंथि, अन्य अंतःस्रावी ग्रंथियों के ग्रावण की, व्यक्ति की वृद्धि, स्वास्थ्य, लैंगिक विकास आदि को नियंत्रित करती है, अतः इसे ‘मास्टर ग्रंथि’ कहते हैं।

पीयूष ग्रंथि द्वारा स्रावित प्रमुख हार्मोन्स

वृद्धि हार्मोन/ सोमेटोट्रोपिक हार्मोन (Growth Hormone or Somatotropic Hormone)

  • शरीर की सामान्य व संतुलित वृद्धि करना इस हार्मोन का कार्य है।
  • थाइरॉक्सिन (थायरॉइड ग्रंथि से स्रावित हार्मोन) की उपस्थिति में वृद्धि हार्मोन अधिक प्रभावी होता है।

अल्पस्रवण (Hyposecretion)

  •  बच्चों में वृद्धि हार्मोन के अल्पम्रवण से ‘बौनापन’ (Dwarfism or Midgets) हो जाता है।
  • वयस्कों में वृद्धि हार्मोन के अल्पम्रवण से ‘साइमंड रोग’ हो जाता है। जिसमें रोगी पतला व उम्र से अधिक वयस्क दिखने लगता है।

अतिस्रवण (Hypersecretion)

  •  बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में वृद्धि हार्मोन’ के अतिस्रवण से ‘अतिकायिकता’ (Gigantism) हो जाती है।
  • इसमें सभी अंगों का विकास सामान्य से अधिक होता है तथा शरीर भीमकाय हो जाता है।
  • वयस्कों में वृद्धि हार्मोन’ के अतिस्रवण से ‘एक्रोमिगेली’ (Acromegaly) हो जाता है।
  • एक्रोमिगेली रोग में व्यक्ति की टाँगें तथा हाथ लंबे हो जाते हैं और चेहरा गोरिल्ला की तरह दिखाई देता है।

थायरॉइड प्रेरक हार्मोन (Thyroid Stimulating Hormone- TSH)

  • यह थाइरॉइड ग्रंथि से निकलने वाले हार्मोन के स्रवण को प्रेरित करता है।
  • यह ग्लाइकोप्रोटीन होता है।
  • एड्रीनोकॉर्टिकोट्रॉपिक हार्मोन (ACTH)
  • यह पोलीपेप्टाइड हार्मोन है जो एड्रीनल ग्रंथि से हार्मोन्स के स्राव को प्रेरित करता है।
  • इसका स्रवण तब होता है, जब रक्त में ग्लूकोज की कमी या सदमावस्था में मैक्रोफेज कोशिकाओं,
  • जैसे- WBCs द्वारा इंटरल्यूकिन-1 (Interleukin-1) स्रावित होता है।

पुटिका प्रेरक हार्मोन (Follicle Stimulating Hormone)

  • महिलाओं में यह अंडाशय पुटिकाओं के विकास का व अंडाशय से निकलने वाले ‘एस्ट्रोजन हार्मोन का नियंत्रण करता है।
  • पुरुषों में यह हार्मोन वृषणों में शुक्राणु निर्माण को प्रेरित करता है।

लुटिनाइजिंग हार्मोन (LH)

  • महिलाओं में यह ‘ल्युटियोट्रॉपिन (Luteotropin)’ कहलाता है।
  • महिलाओं में यह ‘एस्ट्रोजन’ के साथ मिलकर अंडाशय को अंडाणु मुक्त करने के लिये, कॉर्पस ल्युटियम (Corpus Luteum) के निर्माण के लिये तथा गर्भाशय को निषेचित अंडा को ग्रहण करने के लिये तैयार करने हेतु प्रेरित करता है।
  • पुरुषों में यह वृषणों के विकास तथा टेस्टोस्टीरॉन के स्रवण को प्रेरित करता है।

प्रोलैक्टिन (Prolactin – PRL)

  • इसे ल्युटियो ट्रॉपिक हार्मोन (Luteotropic-LTH) या मैमोट्रॉपिक हार्मोन (Mammotropic Hormone MTH) भी कहते हैं।
  • यह स्त्रियों में दुग्ध ग्रंथियों से दुग्ध स्राव को उत्प्रेरित करता है।

मिलैनोसाइट प्रेरक हार्मोन (Melanocyte Stimulating Hormone-MSH)

  • मनुष्यों में यह हार्मोन त्वचा पर रंग, तिल व चकत्ते आदि बनने को प्रेरित करता है।
  • जंतुओं में यह त्वचा के वर्णकों (Melanin) को फैलाकर त्वचा के रंग को नियमित करता है।

वासोप्रेसिन (Vasopressin) / एंटी डाइयूरेटिक हार्मोन(Antidiuretic Hormone-ADH)

  • यह हार्मोन मूत्र के सांद्रण का कार्य करता है।
  • वासोप्रेसिन के अल्पम्रवण से मूत्र की मात्रा तथा तनुता बढ़ जाती है।
  • यह स्थिति मूत्रालता (Diuresis or Polyurea) अथवा ‘डायबिटीज इन्सिपिडस’ कहलाती है।
  • इसमें शरीर का निर्जलीकरण हो जाता है।
  • इसके उपचार के लिये कृत्रिम ADH का उपयोग करते हैं जिसे पिट्रेसिन (Pitresin) कहा जाता है।

ऑक्सीटोसिन (Oxytocin)

  • यह हमारे शरीर की चिकनी पेशियों पर कार्य करता है तथा उनके संकुचन को प्रेरित करता है।
  • मादाओं में यह प्रसव (Labour Pain) के समय गर्भाशयी पेशियों के संकुचन को प्रेरित करता है, अतः इसे ‘जन्म हार्मोन’ भी कहते हैं।
  • शिशु के जन्म के बाद यह स्त्रियों की दुग्ध ग्रंथियों से दुग्ध के स्राव को प्रेरित करता है, अत: इसे ‘दुग्ध निष्कासन हार्मोन’ भी कहते हैं।
  • गाय, भैंसों के थनों से दूध उतारने के लिये ‘ऑक्सीटोसिन’ हार्मोन का ही इंजेक्शन लगाया जाता है।

हाइपोथैलेमस (Hypothalamus)

  • हाइपोथैलेमस शरीर ताप, भूख तथा प्यास, तंत्रिका तंत्र, लैंगिक आचरण, शरीर सुरक्षा आदि का नियंत्रण करता है।
  • इसके द्वारा नौ ऐसे हार्मोन्स तत्त्व स्रावित किये जाते हैं, जो पीयूष ग्रंथि के सात हार्मोन्स के स्रवण को नियंत्रित करके शरीर की वृद्धि, विकास, समस्थैतिकता (Homeostasis) तथा उपापचय आदि सभी का नियमन और समन्वयन करते हैं।

अवदु ग्रंथि / थायरॉइड ग्रंथि (Thyroid Gland)

  • थायरॉइड ग्रंथि श्वास नली के दोनों ओर स्थित होती है, जो दो पालियों (Lobes) से बनी होती हैं।
  •  मुख्य कोशिकाएँ दो हार्मोन टेट्राआयोडोथाइरोनीन (Tetraiodothyronine) या थाइरॉक्सिन (Thyroxine T.) तथा ट्राईआयोडोथाइरोनीन (Triiodothyronine- T) स्रवण करती है।
  • थाइरॉक्सिन आयोडीन युक्त अमीनो अम्ल होता है जिसका मुख्य कार्य बुद्धि को नियंत्रित तथा शरीर का विकास करना है।
  • थायरॉक्सिन हार्मोन स्रावित करने के लिये उत्तेजित करने वाला अंतःस्रावी हार्मोन थायरोट्रॉपिन (TSH) है।

अल्पनाव (Hyposecretion) से रोग

  1. क्रिटिनिज्म (Cretinism): बच्चों में थाइरॉक्सिन के अल्पनाव से यह रोग उत्पन्न होता है। इसके कारण मंदबुद्धि तथा बौनापन हो जाता है।
  2. मिक्सोडीमा (Myxoedema): वयस्को में थाइरॉक्सिन के अल्पनाव से यह रोग उत्पन्न होता है। इसमें रोगी में धीमी हृदय धड़कन, निम्न शरीर ताप, पेशीय थकान आदि रहती हैं।
  3. घेघा रोग (Goitre): यह रोग भोजन में आयोडीन की कमी से हो जाता है। इसमें गर्दन में उपस्थित थायरॉइड ग्रंथि फूल जाती है। खाने वाले नमक में उचित मात्रा में आयोडीन लेने पर घंघा रोग का निदान हो जाता है।
  • थाइरॉक्सिन के अतिस्राव (Hyperthyroidism) से ग्रेन्स या एक्सआप्थैल्मिक घेंघा रोग हो जाता है जिसमें आँखें बाहर की ओर उभर आती है तथा उपापचय दर बढ़ जाती है।
  • पैरापुटिकीय कोशिकाएँ (C-Cells) एक ‘आयोडीन रहित’ हार्मोन ‘कैल्सिटोनिन’ या थाइरॉकैल्सिटोनिन (Thyrocalcitonin TCT) का स्रवण करती हैं।
  • कैल्सिटोनिन हार्मोन रुधिर में कैल्शियम तथा फॉस्फेट की मात्रा का नियमन करता है।

हाशीमोटो रोग (Hashimoto’s Disease):

  • आनुवंशिक कारणों, लिंग हार्मोन्स, आयोडीन के अत्यधिक सेवन तथा संक्रमण आदि के कारण थाइरॉइड ग्रंथि से स्रावित हार्मोन्स की मात्रा इतनी कम हो जाती है कि शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें शरीर के पदार्थ न मानकर विष पदार्थ या बाहरी एंटीजन मानने लगता है।
  • परिणामस्वरूप शरीर में ऐसे एंटीबॉडीज बनने लगते हैं, जो इन हार्मोन्स के साथ-साथ थाइरॉइड ग्रंथि को भी नष्ट कर देते हैं।
  • इस प्रकार हाशीमोटो रोग को थायरॉइड की आत्महत्या भी कहा जाता है।
  • थायरॉइड संबंधी अनियमितताएँ पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक होती हैं।

पैराथायरॉइड ग्रंथि (Parathyroid Gland)

यह पैराथायरॉइड हार्मोन (PTH) या कॉलिप हार्मोन का स्रवण करती हैं, जिनका मुख्य कार्य रक्त में कैल्शियम की मात्रा का नियमन करना होता है।

अल्पस्रवण (Hyposecretion): पैराथायरॉइड हार्मोन के अल्पम्रवण से कंकाल पेशियों (यथा-बाँह पैर आदि) में ऐंठन, जकड़न एवं कंपन होने लगता है अर्थात् कंकाल पेशियों में फैलाव को क्षमता कम हो जाती है, जिसे ‘टिटेनी’ कहते हैं। यह शरीर में रक्त में कैल्शियम के निम्न स्तर के कारण होता है।

अतिस्रवण (Hypersecretion): पैराथारॉइड हार्मोन के अतिस्रवण से हड्डियों से कैल्शियम का निष्कासन होने लगता है। जिससे हड्डियाँ पतली एवं कमजोर हो जाती है। यह रोग ऑस्टिओपोरोसिस (Osteoporosis) कहलाता है।

अधिवृक्क ग्रंथि (Adrenal Gland)

  • ये ग्रंथियाँ दोनों किडनियों के ऊपरी सिरे पर स्थित होती हैं जिनका रंग पीला तथा आकार पिरामिड की तरह होता है।
  • ये मानव शरीर में हार्मोन्स से संबंधित अनेक कार्यों यथा रक्त शर्करा को नियंत्रित करना, प्रोटीन तथा वसा को जलाना, तनाव पर प्रतिक्रिया देना, रक्तचाप को
  • नियंत्रत करना आदि के लिये उत्तरदायी होती हैं। इसके दो मुख्य भाग होते हैं।

एड्रेनल कॉर्टेक्स (Adrenal Cortex)

  • यह अधिवृक्क ग्रंथि का बाहरी भाग होता है जो तीन स्तरों से मिलकर बना होता है।
  • विभिन्न स्तर पृथक-पृथक हार्मोन्स की आवश्यकता पड़ने पर साव करते हैं।
  • कार्टेक्स द्वारा स्रावित प्रमुख हार्मोन्स निम्न हैं

एल्डोस्टेरॉन (Aldosteron): हार्मोन्स रक्त दबाव को विनियमित करने की शारीरिक शक्ति को प्रभावित करता है।

कॉर्टिसॉल (Cortisol): यह हार्मोन्स तनाव के समय स्रावित होता है तथा विषम परिस्थितियों में लड़ने या पलायन करने से संबंधित निर्णयों में मदद करता है।

एंड्रोजेन (Androgen) : एंड्रोजेन हार्मोन्स स्टेरॉयड हार्मोन्स होते हैं जो पुरुष विशेषताओं तथा प्रजनन के लिये जिम्मेदार होते हैं। DHEA, DHEA –S, एंड्रोस्टेनेडियॉन आदि प्रमुख एड्रेनल एंड्रोजेन हार्मोन्स हैं।

एड्रेनल मेड्यूला (Adrenal Medulla)

  • यह अधिवृक्क ग्रंथि का आंतरिक भाग होता है जो मुख्यतः शरीर के तनाव अनुक्रिया प्रबंधन से संबंधित होता है।
  • मेड्यूला से स्रावित प्रमुख हार्मोन्स निम्न हैं
  • एड्रीनेलिन (Adrenalin)
  • नॉरएड्रेनेलिन (Noradrenaline)
  • इन्हें स्ट्रेस हार्मोन्स भी कहा जाता है। ये मेड्यूला में उत्पन्न तथा संचित रहते हैं। किसी आघात या खतरे से उत्पन्न अत्यधिक तनाव के समय मस्तिष्क एड्रेनल ग्रंथि को हार्मोन्स स्राव के लिये सिग्नल भेजता है। अन्य क्रियाओं के साथ-साथ ये हार्मोन्स पाचन को धीमा कर देते है, जागरूकता को बढ़ा देते हैं तथा रक्त प्रवाह को मस्तिष्क एवं मासपेशियों की ओर मोड़ देते हैं।
  • ‘एड्रीनेलिन’ के स्रवण का नियमन, पीयूष ग्रंथि द्वारा नहीं अपितु ‘स्वायत्त तंत्रिका तंत्र’ के द्वारा होता है। रक्त दाब कम होने पर रोगी को ‘एड्रीनेलिन’ दिये जाने पर आराम मिलता है।

विरिलिज्म (Virilism): महिलाओं में पुरुषोचित लक्षणों (भारी आवाज, दाढ़ी मूंछें बढ़ना) का प्रकट होना विरिलिज्म कहलाता है। यह महिलाओं में एंड्रोजन्सके अतिस्राव का दुष्परिणाम होता है।

गाइनेकोमास्टिया (Gynecomastia): पुरुषों में महिलाओं जैसे लक्षण (तीखी आवाज, दुग्ध ग्रंथियों का विकास आदि) का प्रकट होना गाइनेकोमास्टिया कहलाता है। यह पुरुषों में एस्ट्रोजन्सके अतिस्राव का दुष्परिणाम होता है।

पिनियल ग्रंथि(Pineal Gland)

  • इस ग्रंथि को पहले आत्मा का स्थान या ‘तीसरी आँख का अवशेष भी माना जाता था। यह ग्रंथि, अग्र मस्तिष्क के पृष्ठीय (ऊपरी) भाग में स्थित होती है।
  • पिनियल ग्रंथि निम्नलिखित तीन हार्मोन्स का ग्रावण करती है-

मेलाटोनिन (Melatonin)

  • मेलाटोनिन का मुख्य कार्य त्वचा वर्णक (Skin Pigment) मेलानिन के संश्लेषण को विनियमित करना, सोने और जागने के चक्र तथा शरीर की जैविक लय (Biological Rhythms) को बनाए रखना होता है।
  • यह पीयूष ग्रंथि द्वारा स्रावित हार्मोन (Melanocyte-Stimulating Hormone MSH) के विपरीत कार्य करता है।
  • मेलानिन एक वर्णक (Pigment) होता है जो त्वचा, आँख, बाल तथा केंद्रीय तंत्रिका तंत्र आदि में पाया जाता है एवं इसके रंग को निर्धारित करता है।
  • जबकि मेलाटोनिन एक हार्मोन है जो मुख्यत: रेटिना एवं पिनियल ग्रंथि से स्रावित होता है।
  • यह शरीर की जैविक घड़ी (Biological Clock) को नियंत्रित करता है।

सेरोटोनिन (Serotonin)

  • यह एक न्यूरोट्रांसमिटर हार्मोन है जो तंत्रिका कोशिकाओं के बीच सूचनाओं का आदान-प्रदान तथा रक्त वाहिकाओं को सिकोड़कर (Vasoconstrictor) रक्त दाब बढ़ाने का कार्य करता है।
  • यह मानव मनोदशा को प्राकृतिक रूप से विनियमित करता है।

एड्रीनोग्लोमेरुलोट्रोपिन (Adrenoglomerulotropin)

  •  यह अधिवृक्क वल्कुट’ (Adrenal Cortex) से एल्डोस्टीरॉन हार्मोन के श्रवण को प्रेरित करता है।
  • पिनियल ग्रंथि शरीर में जैविक घड़ी का नियमन करके सोने-जागने के चक्र, शरीर के तापक्रम तथा मासिक चक्र का निर्धारण भी करती है।
  • मनुष्य में लगभग दस वर्ष की आयु के पश्चात् पिनियल ग्रंथि कैल्सियम लवणों के कण जमा होने के कारण नष्ट होने लगती है।
  • इन कणों को मस्तिष्क की रेत (Brain Sand) कहते हैं।

थाइमस ग्रंथि (Thymus Gland)

  • यह द्विपालीय (Bilobed) लसिका अंग है, जो हृदय तथा महाधमनी के ऊपर स्थित होता है।
  • जन्म के समय यह लगभग 10-12 ग्राम की यौवनावस्था में 20-30 ग्राम की वृद्धावस्था में मात्र 3-6 ग्राम की रह जाती है।
  • स्पष्ट है कि यह युवाओं में सक्रिय रहती है किंतु लैंगिक परिपक्वता के बाद धीरे-धीरे अपघटित होती जाती है।
  • थाइमस ग्रंथि ‘थाइमोसिन’ नामक हार्मोन का स्रवण करती है, जो शरीर में ‘T’ लिम्फोसाइट्स’ या T-Cell निर्माण को बढ़ाकर शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र में सहायक होती है।
  • थाइमस ग्रंथि T लिम्फोसाइट्स एंटीबॉडीज बनाती है. अत: इसे T लिम्फोसाइट प्रशिक्षण विद्यालय’ भी कहा जाता है।
  • थाइमस ग्रंथि एक अन्य हार्मोन थायमिन या थायमोपोइटिन का स्रवण भी करती है।
  • वृद्धों में थाइमोसिन का उत्पादन घट जाता है, परिणामस्वरूप उनकी प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया भी कमजोर पड़ जाती है। 

अन्य ग्रंथियाँ

अग्न्याशय (Pancreas)

  • यह मानव शरीर की दूसरी सबसे बड़ी ग्रंथि है (यकृत सबसे बड़ी ग्रंथि है) तथा एक मिश्रित (संयुक्त) ग्रंथि है, जो अंतःस्रावी तथा बहिःस्रावी दोनों रूपों में कार्य करती है।
  • ग्रंथि का अंतःस्रावी भाग (लगभग 1-2 प्रतिशत) मुख्यत: चार प्रकार की कोशिकाओं के झुंडों का बना होता है जिन्हें ‘लैंगर हैस द्वीप’ (Islets of Langerhans) कहते हैं।
  • लंगर हंस द्वीप की कोशिकाओं में अल्फा कोशिकाएँ ग्लूकागॉन, बीटा कोशिका इंसुलिन डेल्टा कोशिकाएँ सोमेटोस्टेटीन तथा एफ कोशिकाएँ (F Cells) पैंक्रियाटिक पेप्टाइड का स्राव करती हैं।

अल्फा कोशिकाएँ (a-cells)

  • ये ‘ग्लूकागॉन’ (Glucagon) नामक हार्मोन को स्रावित करती हैं।
  • ग्लूकागॉन रक्त में ग्लूकोज (Glucose) की मात्रा सामान्य रखने का कार्य करता है।
  • ग्लूकागॉन प्रोटीन एवं वसा से ग्लूकोज के संश्लेषण को प्रेरित करता है।
  • ग्लूकागॉन यकृत में संचित ग्लाइकोजन (Glycogen) से ग्लूकोज का संश्लेषण करता है।
  • यह प्रक्रिया ग्लाइकोजीनोलाइसिस कहलाती है।
  • इस प्रक्रिया से रक्त में ग्लुकोज की आवश्यक मात्रा मिल जाती है।

बीटा कोशिकाएँ (B-cells)

  • ये ‘इन्सुलिन’ (Insulin) नामक हार्मोन का स्राव करती हैं। इन्सुलिन एक प्रोटीन श्रृंखला या पेप्टाइड हार्मोन है।
  • इन्सुलिन का मुख्य कार्य रक्त के अतिरिक्त शुगर को ग्लाइकोजेन में परिवर्तित करना है। यह ग्लाइकोजन यकृत में संचित रहती है। शरीर में इन्सुलिन की कमी से मधुमेह (Sugar) नामक रोग होता है।
  • मधुमेह के रोगियों को इन्सुलिन के इंजेक्शन लगाए जाते हैं. मुख से (Oral) इन्सुलिन लेने पर इसका प्रोटीन की भाँति पाचन हो जाता है।
  • सुअरों की इन्सुलिन संरचना मनुष्यों से अधिक समानता रखती हैं. जबकि भेड़ आदि चौपायों की इन्सुलिन मनुष्य में एलर्जी पैदा कर देती हैं।
  • इन्सुलिन वह प्रथम प्रोटीन है, जिसे रिकॉम्बीनेट डी.एन.ए. (Recombinant DNA) तकनीक द्वारा जीवाणु (Bacteria Escherichia Coli or E. Coli) की सहायता से व्यावसायिक स्तर पर बनाया गया था।

फ्रेडरिक सेंगर नामक वैज्ञानिक ने सर्वप्रथम गाय के इन्सुलिन (Bovine Insulin) की संपूर्ण रासायनिक संरचना की जानकारी दी।

इन्सुलिन में अमीनो अम्ल के क्रम की खोज करने के लिये सेंगर को 1958 में नोबेल पुरस्कार मिला जबकि जीन की रासायनिक संरचना संबंधी कार्य के लिये इन्हें सन् 1980 में पुन: नोबेल पुरस्कार दिया गया।

सेंगर प्रथम ब्रिटिश वैज्ञानिक थे, जिन्हें नोबेल पुरस्कार दो बार प्रदान किया गया।

जनन अंग (Gonads)

  • जनन अंग उन अंगों (नर में वृषण तथा स्त्री में अंडाशय) को कहते हैं, जो प्रजनन क्रिया में प्रत्यक्ष रूप से शामिल होते हैं।
  • जनन अंगों का मुख्य कार्य युग्मक निर्माण (Gamete Formation) होता है किंतु ये लिंग हार्मोन्स का उत्पादन भी करते हैं।
  • लिंग हार्मोन्स सहायक लैंगिक अंगों की वृद्धि, विकास, द्वितीयक लैंगिक लक्षण, लैंगिक व्यवहार आदि को निर्धारित करते हैं।
  • नर व मादा में अलग-अलग लिंग हार्मोन्स होते हैं

नर हार्मोन्स (Male Hormones)

एंड्रोजन्स
  • नर में उदर गुहा के बाहर वृषण कोश में एक जोड़े वृषण स्थित होते हैं।
  • नरों में वृषण प्राथमिक लैंगिक अंग होते हैं तथा यह अंतस्रावी ग्रंथि के रूप में भी कार्य करते हैं।
  • नर हार्मोन्स (एंड्रोजन्स) इन्हीं अंतराली कोशिकाओं (Interstitial Cell or leyding Cells) द्वारा स्रावित होते हैं, जिनमें से प्रमुख नर हार्मोन ‘टेस्टोस्टेरॉन’ (Testosteron) होता है।
  • टेस्टोस्टेरॉन को पौरुष-विकास हार्मोन (Masculinization Hormone) कहा जाता है।

मादा हार्मोन्स (Female Hormones)

मादा हार्मोन्स में दो हार्मोन्स शामिल हैं।

ईस्ट्रोजेन्स या पुटिकीय हामोन (Estrogens or Follicular Hormone)
  • कॉर्टेक्स में कई छोटी-छोटी अंडपुटिकाएँ (Graffian Follicle) पाई जाती हैं, जो ‘ईस्ट्रोजन्स’ का रक्त में ग्रावण करती हैं।
  • गर्भनाल (Placenta) भी एक अस्थायी अंतःस्रावी रचना होती है, जो मानव कॉरियोनिक गोनेडोट्रॉपिन (Human Chorionic Gonadotropin-HCG), लेक्टोजन, एस्ट्रोजन, प्रोजेस्ट्रॉन, रिलेक्सिन आदि स्त्रावित करती है।
  • यह नारी विकास हॉरमोन (Feminizing Hormone) कहलाता है।
  • क्योंकि यह मादा के लैंगिक लक्षणों तथा सहायक जननांगों के विकास को प्रेरित करता है।
  • ईस्ट्रोजन के प्रभाव से लड़कियों में स्तनों (Breast), अंडवाहिनियों (Oviduct), गर्भाशय (Uterus) तथा योनि (Vagina) का विकास होता है।
  • ईस्ट्रोजेन्स हार्मोन में ईस्टूडिऑल (Estrodiol) हार्मोन प्रमुख है।
प्रोजेस्टेशनल हार्मोन या ल्यूटियल हार्मोन (Progestational or Luteal Hormone)
  • इसमें प्रोजेस्ट्रॉन हामॉन प्रमुख हैं। प्रोजेस्ट्रॉन हार्मोन का स्रवण कॉर्पस लुटियम से ही होता है।
  • यह हार्मोन गर्भधारण के लिये आवश्यक अनेक लक्षणों के विकास को प्रेरित करता है।
  • मादाओं में एक जोड़ा अंडाशय उदर गुहा में पाया जाता है।
  • मादा में अंडाशय प्राथमिक लैंगिक अग होता है, जो अंतःस्रावी ग्रंथि के रूप में भी कार्य करता है।
  • गर्भधारण के सभी परीक्षणों का आधार स्त्री के मूत्र में HCG का उपस्थित होना है।
  • निषेचन (Fetilization) की क्रिया डिबवाहिनी नली (Oviduct) में होती है।

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