भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका

भारतीय लोकतंत्र

  • हम सभी जानते हैं कि लोकतंत्र एक ऐसी पद्धति है जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है और प्रतिनिधि जनता की आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर शासन संचालन करते हैं ।
  • लोकतंत्र में अधिकार सबसे महत्वपूर्ण होता है और भारतीय संविधान में व्यवस्था की गई है कि यदि अधिकारों के हनन की बात की जाए तो नागरिक सीधे न्यायालय में जा सकते हैं ।
  • इसके लिए शासन के तीसरे महत्वपूर्ण अंग के रूप में एक निष्पक्ष और मजबूत न्यायपालिका की व्यवस्था भी की गई है ।
  • नागरिकों के अधिकार तथा कानून के शासन को सुनिश्चित करने के लिए भारतीय न्यायपालिका अपनी सक्रिय भूमिका निभाती है ।
  • इस संदर्भ में आलोचकों द्वारा अक्सर न्यायपालिका के सक्रियता के लिए अति सक्रियता शब्द का इस्तेमाल किया जाता हैं जिससे न्यायपालिका की शक्ति में हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है ।

खबरों में क्यों हैं?

  • हाल ही में न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने एक कार्यक्रम में लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका के विषय पर बोलते हुए कहा कि उच्चतम न्यायालय को उन मुद्दों को नहीं छूना चाहिए जिनके लिए विधायिका की भूमिका की आवश्यकता होती है ।
  • न्यायाधीश चंद्रचूड़ की न्यायपालिका और विधायिका के संदर्भ में टिप्पणी इसलिए महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि वह इस वर्ष नवंबर में 2 वर्ष की अवधि के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश बनने की कतार में हैं ।

लोकतंत्र क्या है?

  • लोकतंत्र शब्द डेमोक्रेसी का पर्याय है डेमोक्रेसी शब्द को मूल रूप से ग्रीक भाषा के शब्द डेमोक्रेसिया से लिया गया है जो डेमोस और क्रेट्रोस से बना है जहां डेमोस का मतलब जनता और क्रेटोस का मतलब शासन ।
  • इस प्रकार लोकतंत्र का शाब्दिक अर्थ जनता का शासन है जो सरकार को सच्चे अर्थों में वैधानिकता प्रदान करती है ।
  • अब्राहम लिंकन की बात करें तो उनके मुताबिक लोकतंत्र जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है।
  • इस प्रकार यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें जनता अपनी मर्जी से अपने ही बीच से अपने लिए प्रतिनिधि चुनती है या यूं कहें जनता अपनी मर्जी से सरकार चुनती है ।
  • इस शासन व्यवस्था में सभी व्यक्तियों के समान अधिकार होते हैं ।
  • एक अच्छा लोकतंत्र वह है जिसमें राजनीतिक और सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय की भी व्यवस्था हो ।
  • लोकतंत्र राज्य और सरकार का एक शासन प्रणाली ही नहीं बल्कि समाज की एक अवस्था भी है ।
  • इस प्रकार व्यापक संदर्भ में लोकतंत्र के अंतर्गत बहुत सी विशेषताओं को शामिल किया जा सकता है जैसे लिखित संविधान, विधि का शासन, मानव अधिकार की उपस्थिति,कार्यपालिका,विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण इत्यादि को लोकतंत्र के आधारभूत लक्षणों में प्रस्तुत किया जा सकता है ।

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लोकतंत्र में विधायिका की भूमिका

  • संसद केंद्र सरकार का विधाई अंग है और संसदीय प्रणाली अपनाने के कारण भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद का एक विशिष्ट एवं केंद्र स्थान है ।
  • विधायिका का प्रमुख दायित्व विधि निर्माण करना होता है ,विधायिका को राष्ट्र का दर्पण भी कहा जाता है ,क्योंकि ऐसा माना जाता है कि जनता की समान इच्छाओं का साकार रुप है , क्योंकि लोकतंत्र का सामान्य अर्थ जनता का शासन है और विधायिका में लोगों के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं।
  • इसलिए विधायिका का एक विशेष दायित्व ये भी है कि वह लोकतंत्र की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहें समन्यता  कार्यपालिका की मनमानी कार्य करने का खतरा बना रहता है ऐसी स्थिति में विधायिका विभिन्न प्रकार से कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है ।
  • यह खतरा तब और ज्यादा बढ़ जाता है जब चुनी हुई सरकार के पास स्पष्ट एवं मजबूत बहुमत हो तब विधायिका ही है जो सरकार को तानाशाह होने से रोकती है विधायिका कटौती प्रस्ताव, निंदा प्रस्ताव,अविश्वास प्रस्ताव जिसके पारित होने से सरकार गिर जाती है, आदि के जरिए सरकार या कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है ।
  • इस प्रकार विधायिका कार्यपालिका को संसद के प्रति जवाब देह बनाए रखने का कार्य करती है ।
  • इसलिए भारत में सरकार की संसदीय पद्धति में विधाई व कार्यकारी अंगों में परस्पर निर्भरता पर जोर दिया गया है ।
  • विचार विमर्श करना लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण तत्व है और भारतीय संसद में किसी भी कानून के पारित होने से पूर्व पर्याप्त विचार विमर्श और बहस की जाती है ।
  • भारत में विधायिका जनता की इच्छाओं वा हितों की प्रमुख संरक्षक होती है ,अतः भारतीय संसद को लोकतंत्र के मुख्य केंद्र के रूप में देखा जा सकता है।

लोकतंत्र में न्यायपालिका की भूमिका

  • भारत में कानून के शासन को लागू करने के लिए एकीकृत न्याय व्यवस्था है और इस व्यवस्था में बहुत सारी अदालतें हैं, जहां नागरिक न्याय के लिए जा सकते हैं।
  • भारतीय न्यायपालिका लोकतांत्रिक न्यायव्यवस्था को बनाए रखने में अहम भूमिका निभाती है ।
  • समन्यतः लोकतंत्र के आदर्श को किसी भी देश के द्वारा अपने संविधान में उल्लेखित किया जाता है जिसके जरिए से उस देश की व्यवस्था संचालित होती है ।
  • भारत में संविधान की व्यवस्था मुख्य अधिकार मुख्य रुप से न्यायपालिका के पास है इस नाते अगर न्यायपालिका को ऐसा लगता है कि संसद के द्वारा पारित कानून संविधान के आधारभूत ढांचे का उल्लंघन कर रहा है तो वह उस कानून को रद्द कर सकती हैं ।
  • न्यायपालिका की इस प्रक्रिया को न्यायिक समीक्षा कहा जाता है ।
  • आमतौर पर लोकतंत्र के मूल में मानवाधिकारों की बात की जाती है मानव अधिकारों के अंतर्गत स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व आदि आते हैं ।
  • भारतीय संविधान के भाग 3 में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है और इस मौलिक अधिकारों को संविधान द्वारा सुरक्षा तथा गारंटी दी गई है ।
  • इस गारंटी और सुरक्षा के लिए संविधान उच्चतम न्यायालय को अधिकृत किया है।
  • इस प्रकार उच्चतम न्यायालय अधिकारो का गारंटर और संरक्षक है ।
  • संविधान के अनुच्छेद 13 से उच्चतम न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त होती है कि अगर कोई विधि अथवा कानून संविधानिक प्रावधान या मान्यताओं का उल्लंघन करता है तो उसे वह असंवैधानिक घोषित करते हुए समाप्त कर सकती है ।
  • इस प्रकार भारत में जो लोकतांत्रिक शासन पद्धति अपनाई गई है उसमें इस बात का ध्यान रखा गया है कि शासन निरंकुश और अत्याचारी ना हो जाए इसके लिए सभी नागरिकों को मौलिक अधिकार दिए गए हैं।
  • साथ ही यह व्यवस्था भी की गई है कि अगर अधिकारी नागरिक के अधिकारों को छीनने का प्रयास करता है, तो नागरिक सीधे न्यायालय जा सके।
  • न्यायालय सरकार को कुछ भी गैर –संवैधानिक तथा गैर– लोकतांत्रिक काम करने से रोकती है और इस तरह न्यायपालिका लोकतंत्र में अपनी भूमिका का निर्वाह करती है ।

न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच टकराव

  • लोकतंत्र में शक्ति पृथक्करण की बात की जाती है और भारतीय संविधान में इस सिद्धांत को लागू किया गया है ।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 50 में न्यायपालिका से कार्यपालिका को पृथक करने का उल्लेख है क्योंकि संविधान की भाषा आमतौर पर जटिल होती है और संविधान की व्याख्या का अधिकार उच्चतम न्यायालय को है ।
  • इसलिए शक्ति की या अन्य किसी मुद्दे पर कभी-कभी कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है ।
  • अक्सर ऐसा भी देखा गया है कि सार्वजनिक मंचों से कभी न्यायपालिका सरकार को निशाने पर लेती है तो सरकार भी न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप ना करने की सलाह देती है ।
  • टकराव के मुख्य बिंदु उच्चतम न्यायालय के द्वारा प्रतिपादित आधारभूत ढांचे का सिद्धांत भी रहा है।
  • उच्चतम न्यायालय ने स्वयं निर्धारित किया है कि शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत संविधान के आधारभूत ढांचे के अंतर्गत आता है ।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत सरकार को संविधान संशोधन की शक्ति प्रदान गई है लेकिन आधारभूत ढांचे का सिद्धांत शक्ति को सीमित करता है ।
  • वर्ष 2014 में संसद के द्वारा 99 वां संविधान संशोधन पारित किया गया इसके तहत सरकार ने राष्ट्रीय न्यायिक न्युक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया था ।
  • इस अधिनियम को लेकर न्यायपालिका और विधायिका के मध्य टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गई थी ।
  • अधिनियम के आलोचकों द्वारा आरोप लगाया गया कि इस अधिनियम के जरिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता बाधित होगी ।
  • सरकार का पक्ष था कि आयोग की कार्यप्रणाली पारदर्शी होगी और यह किसी भी स्थिति में न्यायपालिका के स्वतंत्रता को बाध्य नहीं करेगा ।
  • हालांकि उच्च न्यायालय के जजों की नियुक्ति को बने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को असंवैधानिक घोषित कर दिया और कहा कि जजों की नियुक्ति पहले की तरह कोलोजियम व्यवस्था के तहत होगी इस तरह ऐसे ही कई अवसरों पर कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव देखने को मिला।

निष्कर्ष

  • भारत में संविधान को सर्वोच्च माना गया है और शासन के विभिन्न अंगों को संविधान से शक्तियां प्राप्त होती हैं ।
  • ऐसे में शक्ति पृथक्करण के सवाल पर एक दूसरे के अधिकारों का सम्मान होना चाहिए ।
  • लोकतांत्रिक व्यवस्था में कोई भी संस्था सर्वोच्चता का दावा नहीं कर सकती ।
  • सरकार और न्यायपालिका के बीच तकरार किसी भी तरह से भारतीय लोकतंत्र के लिए अच्छी नहीं है ।
  • ऐसे में सरकार का यह दायित्व है कि वह लोकतांत्रिक तरीके से जनता के हित में शासन करें।

 

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