प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis)
- सूर्य के प्रकाश में पौधों की कोशिकाओं में उपस्थित पर्णहरित (क्लोरोफिल) की सहायता से कार्बन डाइऑक्साइड व जल के संयोग से कार्बन युक्त यौगिकों (कार्बोहाइड्रेट्स एवं ग्लूकोज) के निर्माण की प्रक्रिया को प्रकाश संश्लेषण कहते हैं। यह एक जैव रासायनिक अभिक्रिया है।
- प्रकाश संश्लेषण के लिये पर्णहरित की उपस्थिति आवश्यक है।
- प्रकाश संश्लेषण में विकिरण ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में बदलकर खाद्य पदार्थों में संचित हो जाती है।
- जल के अपघटन से निकली ऑक्सीजन इस अभिक्रिया में उप-उत्पाद के रूप में वायुमंडल में मुक्त होती है।
- प्रकाश संश्लेषण का अंतिम उत्पाद ग्लूकोज है जो शीघ्र हो मंड में बदल जाता है।
- प्रकाश संश्लेषण में लाल रंग सर्वाधिक प्रभावकारी है।
पादपों में श्वसन (Respiration in Plants)
- पादपों में श्वसन ऑक्सीजन एवं कार्बन डाइऑक्साइड के आदान-प्रदान से शरीर की सतह द्वारा विसरण क्रिया से होता है।
- प्राणियों की तुलना में पादपों में श्वसन तीन तरह से भिन्न होता है
- पादपों की श्वसन दर प्राणियों की अपेक्षा धीमी होती है।
- पादपों के सभी भाग, जैसे- मूल, तना, पत्ती श्वसन करते हैं।
- पादपों के एक भाग से दूसरे भाग तक गैसों का परिवहन बहुत कम होता है।
पत्तियों में गैसीय विनिमय
- श्वसन के लिये पत्ती की सतह पर उपस्थित स्टोमेटा (Stomata) के द्वारा ऑक्सीजन विसरित होकर पत्ती की कोशिकाओं तक पहुंचती है।
- जब कोशिकाओं में CO2 की सांद्रता बढ़ जाती है तो इसे वातावरण में मुक्त करने के लिये स्टोमेटा खुल जाते हैं।
- इस प्रकार पत्तियों में श्वसन गैसों के विनिमय विसरण द्वारा होता है।
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पादपों में जनन (Reproduction in Plants)
- पादपों में जनन दो प्रकार से होता है- अलैंगिक जनन एवं लैंगिक जनन।
अलैंगिक जनन (Asexual Reproduction)
- इसमें पादप बिना बीज के नए पादप को उत्पन्न करता है।
- अलैंगिक जनन निम्न विधियों जैसे कायिक प्रवर्धन, मुकुलन, खंडन एवं बीजाणु निर्माण से होता है।
कायिक प्रवर्धन (Vegetative Amplification)
इसमें पादप के मूल, तने, पत्ती एवं कली से नया पौधा प्राप्त किया जाता है।
तने द्वाराः इसमें तने के सभी भागों, जैसे- भूमिगत तने से अदरक, लहसुन आदि को प्राप्त किया जाता है; अर्द्धवायवीय तने से दूबघास, पुदीना, गुलदाउदी तथा वायवीय तने से गन्ना, अमरबेल व मनीप्लांट के नए पौधे उगते हैं।
पत्ती से: पत्ती के किनारे कलिकाएँ होती हैं जिससे नए पादप का जन्म होता है जैसे-ब्रायोफिलम विग्नोनिया आदि।
जड़ से: ऐसे पौधों में जड़ें भोजन इकट्ठा कर फूल जाती हैं तथा सुसुप्तावस्था में चली जाती हैं। उन पर लगी अपस्थानिक कलियाँ अगले जननकाल में नए पौधों को जन्म देती हैं। जैसे- शकरकंद, डहेलिया, शतावर आदि।
मुकुलन (Budding)
- यीस्ट में जनन मुकुलन विधि से होता है। यीस्ट कोशिका से छोटी-छोटी कलिका की तरह उभार या मुकुल बनते हैं जो कोशिका से अलग होकर नई यीस्ट कोशिकाएँ बनाते हैं।
- यीस्ट में ये मुकुल मातृ कोशिका से अलग हुए बिना भी नए मुकुल बना लेते हैं, जिससे एक हो यीस्ट कोशिका पर मुकुलों की शृंखला बन जाती है।
खंडन (Fragmentation)
- शैवाल में खंडन के द्वारा जनन होता है। जल और पोषक तत्त्वों के उपलब्ध होने पर, शैवाल वृद्धि करते हैं एवं तेजी से खंडन द्वारा गुणन करते हैं।
- शैवाल दो या अधिक खंडों में विभाजित हो जाते हैं तथा ये खंड नए जीवों के रूप में वृद्धि कर जाते हैं।
बीजाणु निर्माण (Spore Formation)
- कवक में जनन बीजाणु निर्माण के द्वारा होता है।
- कम विकसित पौधों में दृढ़ आवरण वाली विशेष एककोशिक रचनाएँ पाई जाती हैं जिन्ह बीजाणु कहते हैं।
- ये प्रतिकूल वातावरण में सुरक्षित रहते हैं एवं अनुकूल परिस्थिति आने पर अंकुरित होकर नए पादप बनाते हैं।
- हरिता (Moss) एवं फर्म जैसे पादपों में भी जनन बीजाणुओं द्वारा होता है।
लैंगिक जनन (Sexual Reproduction)
- लैंगिक जनन में बीजों से नए पादप उत्पन्न होते हैं। लैंगिक जनन दो विधियों परागण एवं निषेचन के द्वारा होता है।
- अधिकतर पौधे उभयलिंगी होते हैं। पादपों का जनन भाग पुष्प होता है।
- पुष्प के विभिन्न भाग होते हैं- बाह्य दल (Sepals), दल (Petals), पुकेसर (Stamen), अंडप (Carpel)। पुष्प में पुंकेसर एवं अंडप जनन अंग होते हैं।
- प्रत्येक पुंकेसर में एक वृत्त जिसे तंतु (filament) कहते हैं तथा एक चपटा शीर्ष परागकोष (Anther) पाया जाता है।
- परागकणों की उत्पत्ति परागकोष में होती है। प्रत्येक परागकण से दो नर युग्मक बनते हैं।
- अंडप के तीन प्रमुख भाग हैं अंडाशय (Ovary), वर्तिका (Style). वर्तिकाग्र (Stigma ) अंडाशय में बीजांड होते हैं एवं प्रत्येक बीजांड में एक अंड होता है जो मादा युग्मक है।
परागण (Pollination )
- जब परागकण परागकोष से वर्तिकाग्र तक स्थानातरित होते हैं तो उसे परागण कहते हैं।
- परागकणों का स्थानांतरण बहुत से माध्यमों, जैसे वायु, जल, कीट तथा अन्य कारको से होता है।
- परागण दो प्रकार के होते हैं स्व-परागण एवं पर परागण ।
(a) स्व-परागण (Self Pollination)
- जब किसी पुष्प के परागकोष से उसी पुष्प के अथवा उस पौधे के अन्य पुष्प के वर्तिकाग्र तक, परागकणों का स्थानांतरण होता है तो उसे स्व-परागण कहते हैं।
(b) परपरागण (Cross Pollination)
- जब एक पुष्प के परागकोष से उसी जाति के दूसरे पौधे के पुष्प के वर्तिकाग्र तक परागकणों का स्थानांतरण होता है तो उसे पर परागण कहते हैं।
पादप हार्मोन्स (Plant Hormones)
- पादप हार्मोन पौधों की जैविक क्रियाओं के बीच समन्वय स्थापित करने वाले रासायनिक पदार्थ होते हैं।
- ये पौधों की वृद्धि एवं अनेक उपापचयी क्रियाओं को नियंत्रित व प्रभावित करते हैं।
(a) वृद्धि प्रवर्द्धक (Growth Stimulator): ये वृद्धि दर को बढ़ाते हैं। जैसे-ऑक्सिन, जिबरेलिन्स, साइटोकाइनिन्स
(b) वृद्धि निरोधक (Growth Inhibitor): ये वृद्धि दर को कम करते हैं। जैसे-एब्सिसिक अम्ल, एथिलीन।
ऑक्सिन (Auxins)
- ऑक्सिन सबसे महत्त्वपूर्ण पादप हार्मोन है। ये पौधों के ऊपरी सिरों पर बनते हैं। ये कोशिकाओं के दीर्घीकरण द्वारा वृद्धि को नियंत्रत करते हैं।
उपयोग
- ऑक्सिन की अधिक मात्रा तने की वृद्धि को प्रेरित करती है जबकि कम मात्रा जड़ की वृद्धि को
- ये कायिक जनन में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। जैसे-गुलाब के कलम से नया पौधा तैयार करना।
- ऑक्सिन का प्रयोग खेतों में छिड़काव करके खर-पतवार को नष्ट करने में किया जाता है।
- ऑक्सिन कुछ पौधों में पुष्पन को प्रेरित करते हैं। ये पौधों के पत्तों एवं फलों को शुरुआती अवस्था में गिरने से बचाते हैं।
जिबरेलिन्स (Gibberellins)
यह एक जटिल कार्बनिक यौगिक है। यह पौधों के ऊपरी सिरों एवं भ्रूण में बनता है तथा इसके सभी भागों में वृद्धि करता है।
उपयोग
- ये पौधों की लंबाई में वृद्धि करते हैं और उनकी जरावस्था को रोकते हैं, ताकि फल पेड़ पर अधिक समय तक लगे रह सकें।
- जिबरेलिन्स चुकंदर, पत्तागोभी जैसे पादपों में वोल्टिंग (पुष्पन से पहले अंतः पर्व का दीर्घकरण) को बढ़ा देते हैं।
- बीजों की प्रसुप्ति तोड़ने में भी इनका उपयोग होता है।
साइटोकाइनिन (Cytokinin)
- प्राकृतिक साइटोकाइनिन उन क्षेत्रों में संश्लेषित होता है, जहाँ तीव्र कोशिका विभाजन संपन्न होता है, जैसे- मूल शिखाग्र, विकासशील प्ररोह कलिकाएँ तथा तरुणफल आदि।
उपयोग
- यह पौधों के अंग निर्माण को नियंत्रित करता है।
- यह प्रसुप्ति काल को कम करता है और जीर्णता को रोकता है।
- यह कोशिका विभाजन की दर को बढ़ा देता है।
इथिलीन (Ethylene)
यह गैसीय अवस्था में होता है। इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य कच्चे फलों को पकाना है। फलों के पकते समय इसकी सांद्रता बढ़ जाती है।
यह वृद्धि अवरोधक हार्मोन है।
ऐबसिसिक एसिड (Abscisic Acid)
- ऐबसिसिक अम्ल पादप वृद्धि तथा पादप उपापचय निरोधक का काम करता है। यह कोशिका विभाजन को रोकता है, अतः इसे वृद्धि निरोधक हार्मोन कहते हैं।
पादप कार्यिकी से संबंधित अन्य तथ्य
दीप्तिकालिया (Photoperiodism)
- पादपों के पुष्पन की अवधि पर सूर्य के प्रकाश का प्रभाव ही दीप्तिकालिता कहलाता है।
फ्लोरिजेन (Florigen or Flowering Hormone)
- यह एक ऐसा हार्मोन है जो पादपों में पुष्पन को प्रेरित करता है। इसका निर्माण पत्तियों में होता है।
वसंतीकरण (Vernalization)
- पादपों में शीघ्र पुष्पन को प्रेरित करने के लिये उनका कम तापमान पर उपचार (Low Temperature Treatment) करना वसंतीकरण कहलाता है।
- इसकी सहायता से पादपों से कम समय में अधिक फसल प्राप्त की जाती है।
- इस प्रक्रिया में पानी सोखे हुए बीज को कम तापमान (0°C से (5°C के बीच) पर निर्धारित समय के लिये रखा जाता है।
- वसतीकरण की प्रक्रिया द्वारा द्विवर्षीय फसलों को एकवर्षीय फसलों में बदला जा सकता है।
प्रसुप्ति (Dormancy)
- पादपों की कलिकाओं (Buds), बीजों (Seeds), ट्यूबर (Tubers), राइजोम ( Rhizomes) आदि का प्रसुप्त रहना या अंकुरित न होना प्रसुप्ति (Dormancy) कहलाता है।
- αएमाइलेज एंजाइम बीजों के अंकुरण में सहायता करता है।
पौधों के लिये आवश्यक पोषक तत्त्व
- पौधों के लिये 16 पोषक तत्त्व आवश्यक होते हैं, जो हवा, पानी एवं मृदा से प्राप्त होते हैं।
- मृदा से प्राप्त होने वाले पोषक तत्त्वों में 6 वृहद् पोषक तत्त्व एवं 7 सूक्ष्म पोषक तत्त्व होते हैं।
विभिन्न पादप अंग
जड़ (The Root)
- द्विबीजपत्री पादपों में मूलांकुर (Radicle) के लंबे होने से प्राथमिक मूल (Primary Roots) बनती है, जो मिट्टी में उगती है। प्राथमिक मूल
- से पाश्र्वीय मूल (Lateral Roots) निकलती है, जिन्हें द्वितीयक एवं तृतीयक मूल कहते हैं। ये तीन प्रकार के होते हैं
मूसला जड़ (Tap Root)
- प्राथमिक मूल एवं इनकी शाखाएँ मिलकर मूसला मूलतंत्र बनाती हैं, जैसे- सरसों का पौधा।
रेशेदार या झकड़ा जड़ (Fibrous Root)
- जब प्राथमिक जड़ें अल्पजीवी होती हैं तो वे पतली जड़ीं द्वारा प्रतिस्थापित हो जाती हैं।
- ये जड़े तने के आधार से निकलती है। जैसे गेहूं का पौधा।
अपस्थानिक जड़ (Adventitious Root)
इसमें मूल मूलाकुर के बजाय पौधों के अन्य भागों से निकलती है। जैसे- घास, बरगद
जड़ का रूपांतरण (Modifications of Root)
- कुछ पादपों में जड़ें जल तथा खनिज के अवशोषण के अतिरिक्त अन्य कार्य भी करती हैं।
- इस दौरान उनके आकार एवं संरचना में परिवर्तन हो जाता है।
मुख्य मूसला जड़ों का रूपांतरण
भोज्य पदार्थ के संचय के लिये
- तर्करूप (Fusiform)- मूली
- कुंभीरूप (Napiform ) – शलजम
- शंक्वाकार (Conical) – गाजर
- गाँठदार (Tuberous)- मिराबिलिस, शकरकंद
रेशेदार जड़ों का रूपांतरण (कार्य के आधार पर)
भोज्य पदार्थ के संचय के लिये
- कंदिल जड़ें (Tuberous Roots) -शकरकंद
- पुलकित जड़ें (Fasciculated Roots)- डहेलिया, शतावर
- ग्रंथिल जड़ें (Nodulose Roots) -अम्बा हल्दी
- मणिकामय जड़ें (Moniliform / Beaded Roots)- अंगूर, करेला
यांत्रिक सहारा प्रदान करने के लिये
- स्तंभ मूल (Prop Roots)- बरगद
- अवस्तंभ मूल (Stilt Roots) – मक्का, गन्ना
- आरोही मूल (Climbing Roots)- पान
अन्य जैविक क्रियाओं के लिये
- चूषण मूल (Sucking Roots) – अमरबेल
- श्वसनी मूल (Respiratory Roots) -राइजोफोरा
- अधिपादप मूल (Epiphytic Roots) – आर्किड
- स्वागीकारक मूल (Assimilatory Roots) – सिंघाड़ा
कुछ पेड़-पौधे स्वयं को शुष्क वातावरण के प्रति अनुकूलित कर लेते है ऐसे पौधे मरुद्भिद कहे जाते हैं। इन पेड़-पौधों की पत्तियाँ काँटेदार, जड़ें अत्यधिक लंबी और गहरी तथा तने मांसल ही जाते हैं जिससे जल की हानि न्यूनतम होती है। कुछ पौधे स्वयं को जलीय पारितंत्र | के प्रति अनुकूलित कर लेते हैं जिन्हें हाइड्रोफाइट (जलोद्भिद ) तथा कुछ पौधे लवणीय पारितंत्र के प्रति अनुकूलित हो जाते हैं जिन्हें | हैलोफाइट (लवण मुदोद्भिद ) कहते हैं।
जड़ के कार्य
- मूलतंत्र का मुख्य कार्य मिट्टी से जल तथा खनिज का अवशोषण करना, पौधों को जकड़ कर रखना, खाद्य पदार्थों का संचय करना तथा पादप नियामकों का संश्लेषण करना है।
तना (The Stem )
- तना प्रांकुर से बढ़ने वाला पादप अक्ष का वह वायवी भाग है जो सामान्यतः भूमि के ऊपर स्थित होता है और शाखाएँ, पत्तियाँ एवं पुष्प धारण करता है।
तना के कार्य
- तने का प्रमुख कार्य शाखाओं को फैलाना तथा पत्ती, फूलों एवं फलों को सँभाले रखना है।
- यह जल, खनिज लवण तथा प्रकाश संश्लेषी पदार्थों का संवहन करता है।
- कुछ तने भोजन संग्रह करने, सहारा व सुरक्षा प्रदान करने तथा कायिक प्रवर्धन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
तना का रूपांतरण (Modifications of Stem )
- तना का रूपांतरण तीन प्रकार से होता है-“
- भूमिगत (Underground)
- उपवायवीय (Sub- Aerial)
- वायवीय (Aerial)
भूमिगत तना (Underground Stem)
- तने का वह भाग जो भूमि के अंदर पाया जाता है, यथा- हल्दी,अदरक, आलू इत्यादि। भूमिगत तने का रूपांतरण निम्न भागों में होता है।
- प्रकंद (Rhizome) हल्दी, अदरक
- कंद (Tubers) – आलू
- शल्क कंद (Bulb) प्याज, लहसुन
- घनकंद (Corm) जमीकंद, अरबी
पत्ती (The Leaf)
- पत्ती, तना या शाखा की पाश्र्व बहिर्वर्द्धन है जो कली पर विकसित होती है।
पत्ती के कार्य
- पत्तियाँ प्रकाश-संश्लेषण की क्रिया द्वारा भोजन तैयार करती हैं।
- पत्तियाँ प्रतान अर्थात् लतातंतु में रूपांतरित होकर मटर जैसे पौधों को ऊपर चढ़ने में मदद करती हैं।
- कुछ पत्तियाँ भोजन संचयित करने का कार्य करती हैं, जैसे- प्याज तथा लहसुन में।
- पत्तियाँ प्रकाश-संश्लेषण एवं श्वसन के लिये विभिन्न गैसों का आदान-प्रदान करती हैं।
- स्वारपाठा (Aloe vera) एवं नागफनी में पत्तियाँ काँटा के रूप में परिवर्तित होकर रक्षा करती हैं।
- पत्तियाँ वाष्पोत्सर्जन को नियंत्रित करती हैं।
- कोटहारी पादपों में पत्तियाँ के आकार में रूपांतरित होकर पोषण में सहायता करती हैं, जैसे- घटपर्णी, वीनस फ्लाई।
फल (The Fruit)
- फल एक परिपक्व अथवा पूर्णतः निर्मित अंडाशय है, जिसका निर्माण निषेचन के उपरांत होता है।
- सामान्यतः इसमें एक फलभित्ति (Pericarp) तथा बीज विद्यमान होते हैं। फलभित्ति शुष्क तथा गूदेदार हो सकती है।
- कभी-कभी कुछ पुष्पीय भाग भी फल के भाग में परिवर्तित हो जाते हैं।
- ये कूट फल (False Fruits) कहलाते हैं, यथा सेब, काजू।
- जबकि अन्य सभी अंडाशय से निर्मित होने वाले फल को वास्तविक फल कहा जाता है।