न्यायपालिका (Judiciary)

न्यायपालिका

  • सर्वोच्च न्यायालय से जुड़े प्रावधान अनुच्छेद 124-147 (भाग-V के अध्याय 4) में, उच्च न्यायालयों से जुड़े प्रावधान अनुच्छेद 214-232 (भाग-VI के अध्याय 5) में, अधीनस्थ न्यायालयों के प्रावधान अनुच्छेद 233-237 (भाग-VI के अध्याय 6) में उल्लिखित हैं।

सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित अन्य प्रावधान

  • वर्तमान में “सर्वोच्च न्यायालय (न्यायाधीशों की संख्या) संशोधन अधिनियम, 2019″ के बाद सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायमूर्ति सहित अधिकतम 34 न्यायाधीश हो सकते हैं। मूल संविधान में 7 अन्य न्यायाधीश व 1 मुख्य न्यायाधीश की व्यवस्था थी।

न्यायाधीशों को हटाए जाने की प्रक्रिया-अनुच्छेद 124(4)

  • महाभियोग हेतु प्रस्ताव लोकसभा में 100 सदस्यों या राज्यसभा में 50 सदस्यों के हस्ताक्षर के साथ ही अध्यक्ष या सभापति को दिया जा सकता है।
  • यदि अध्यक्ष या सभापति प्रस्ताव स्वीकार कर लेता है तो उसे तीन व्यक्तियों की समिति गठित करनी होती है जिनमें एक सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति या अन्य न्यायाधीश, दूसरा किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति तथा तीसरा एक पारंगत विधिवेत्ता (Distinguished Jurist) होना चाहिये।
  • यदि समिति इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि न्यायाधीश न तो कदाचार का दोषी है और न ही असमर्थ, तो यह प्रक्रिया यहीं समाप्त हो जाती है, किंतु यदि समिति उसे कदाचार का दोषी या असमर्थ पाती है तो मूल प्रस्ताव के साथ समिति की रिपोर्ट सदन में पेश की जाती है।
  • दोनों सदनों में अलग-अलग यह प्रस्ताव सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित व मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा पारित होना चाहिये।
  •  इसके बाद दोनों सदन पारित किये गए प्रस्ताव को राष्ट्रपति के पास भेजते हैं तथा राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद से हटाए जाने का आदेश जारी करता है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने ‘वी. रामास्वामी’ से जुड़े मामले में निर्धारित किया है कि यदि न्यायाधीश के हटाए जाने की प्रक्रिया के दौरान लोकसभा भंग हो जाती है तो भी यह संकल्प व्यपगत (Lapse) नहीं होता है।
  • अभी तक के भारत के संवैधानिक इतिहास में किसी भी न्यायाधीश को उपर्युक्त प्रक्रिया द्वारा हटाया नहीं गया है।

सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार तथा शक्तियाँ

  • सर्वोच्च न्यायालय मूल अधिकारों का संरक्षक तथा संविधान का अंतिम व्याख्याकार है। यह देश के सभी सिविल और आपराधिक मामलों में अपील का अंतिम न्यायालय भी है।
  • संवैधानिक विषयों से जुड़ी अपीलें: अनुच्छेद 132 के अंतर्गत प्रावधान है कि यदि किसी उच्च न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश से कोई ऐसा प्रश्न जुड़ा है, जो संविधान से संबद्ध ‘विधि का सारवान प्रश्न’ (Substantial Question of Law) है और उच्च न्यायालय इस आशय का प्रमाण दे देता है तो सर्वोच्च न्यायालय में उसकी अपील की जा सकेगी। यह मामला सिविल भी हो सकता है, आपराधिक (Criminal) भी और अन्य भी।
  • उल्लेखनीय है कि संविधान के निर्वचन से संबंधित मामलों की सुनवाई हेतु न्यूनतम पाँच न्यायाधीशों की पीठ होना अनिवार्य है।

सलाहकारी अधिकारिता (Advisory Jurisdiction)

  • राष्ट्रपति सार्वजनिक महत्त्व के विवादों या विषयों पर अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राय मांग सकता है। इसमें दो अनुच्छेद हैं। अनुच्छेद 143(1) के तहत पूछे गए प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय ने ‘केरल शिक्षा अधिनियम, 1958’ में स्पष्ट किया था कि राष्ट्रपति को दी गई राय सम्मान के योग्य तो है, किंतु बाध्यकारी नहीं। अनुच्छेद 143(2) (अनुच्छेद 131 के परंतुक से संबंधित) के तहत राष्ट्रपति ने अभी तक एक भी प्रश्न नहीं पूछा है। हालाँकि अनुच्छेद 143(2) के तहत अगर राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय से राय मांगता है तो वह राय देने के लिये संवैधानिक रूप से बाध्य है।

न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति (Power of Judicial Review)

  • सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा है, जिसे संसद किसी भी स्थिति में न तो कम कर सकती है और न ही छीन सकती है। अनुच्छेद 13, 32, 132 तथा 133 से यह शक्ति निगमित होती है।

अन्य शक्तियाँ व अधिकारिताएँ

  • जिन याचिकाओं के तहत सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णयों का पुनर्विलोकन (अनुच्छेद 137) करता है, उन्हें ‘पुनर्विचार याचिका’ (Review Petition) कहते हैं। ऐसी याचिका निर्णय के 30 दिनों के भीतर ही दायर की जा सकती है।

उपचारात्मक याचिकाया दोषाहारी याचिका‘ (Curative Petition) इसका प्रयोग वहाँ किया जाता है, जहाँ पुनर्विचार याचिका (Review Petition) भी खारिज हो गई हो, किंतु पीड़ित पक्ष किसी अति-गंभीर आधार पर उपचार का निवेदन करना चाहता हो।

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित विधि का सभी न्यायालयों पर आबद्धकारी होना: (अनुच्छेद 141)

पूर्ण न्याय करने की शक्तिः सर्वोच्च न्यायालय ऐसी डिक्री या आदेश दे सकेगा, जो उसके समक्ष किसी वाद या विषय में पूर्ण न्याय या सुधारात्मक याचिका करने के लिये आवश्यक हो। (अनुच्छेद 142)

मामलों का स्थानांतरण करने की शक्तिः [139क] यह अनुच्छेद ’42वें संशोधन’ द्वारा संविधान में शामिल किया गया था।

अनुच्छेद 145(3) स्पष्ट करता है कि यदि किसी मामले में संविधान की व्याख्या का प्रश्न हो या अनुच्छेद 143 अधीन राष्ट्रपति द्वारा पूछे गए प्रश्न पर विचार करने का प्रसंग हो तो कम-से-कम 5 न्यायाधीशों की पीठ बैठेगी। ध्यातव्य है कि 5 या अधिक न्यायाधीशों की पीठ को संविधान पीठ (Constitutional Bench) कहा जाता है।

संविधान की व्याख्या की शक्तिः सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की व्याख्या का अंतिम तथा पूर्ण अधिकार है, जो उसे मुख्यतः अनुच्छेद 13, 132 तथा 133 से प्राप्त होता है।

निर्वाचन विवाद से जुड़ी शक्तिः राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन के संबंध में यदि कोई विवाद उत्पन्न होता है तो उसका निपटान करने की शक्ति सिर्फ सर्वोच्च न्यायालय के पास ही है।

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन तथा न्यायालय के सभी प्रशासनिक खर्चों को अनुच्छेद 146 के तहत भारत की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित किया गया है।
  • अनुच्छेद 121 में स्पष्ट किया गया है कि उच्चतम न्यायालय या किसी उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश द्वारा अपने कार्य के निर्वहन के संबंध में किये गए आचरण पर संसद में बहस नहीं की जाएगी। जब किसी न्यायाधीश को हटाए जाने की प्रक्रिया चल रही हो तो ऐसी बहस की जा सकती है।
  • अनुच्छेद 146 के अंतर्गत भारत के मुख्य न्यायाधीश को शक्ति है। कि वह सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारियों व सेवकों की नियुक्ति कर सके।

उच्च न्यायालय से संबंधित अन्य प्रावधान

  • वर्तमान में भारत के कुल राज्यों तथा संघ राज्य क्षेत्रों के लिये कुल 25 उच्च न्यायालय हैं। कुल मिलाकर 7 ऐसे उच्च न्यायालय हैं, जो दो या दो से अधिक राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों की अधिकारित का निर्वाह करते हैं।
  • उल्लेखनीय है कि 2014 में आंध्र प्रदेश के विभाजन के पश्चात हैदराबाद स्थित न्यायालय से ही आंध्र प्रदेश व तेलंगाना का उच्च न्यायालय संचालित हो रहा था। परंतु 1 जनवरी, 2019 से दोनों राज्यों के उच्च न्यायालय अलग करते हुए अमरावती में 25वें उच्च न्यायालय के रूप में ‘आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय’ स्थापित किया गया।
  • अनुच्छेद 231 द्वारा संसद दो या अधिक राज्यों के लिये एक उच्च न्यायालय का गठन कर सकती है और साथ ही चाहे तो किसी संघ राज्य क्षेत्र (Union Territory) को भी उससे जोड़ सकती है।
  • जहाँ तक संघ राज्य क्षेत्रों का सवाल है, दिल्ली अकेला ऐसा क्षेत्र है, जिसे अपना स्वतंत्र उच्च न्यायालय मिला हुआ है।

हमारा YouTube Channel, Shubiclasses अभी Subscribe करें !

लोकहितवाद/जनहित याचिका (Public Interest Litigation-PIL

एक ऐसी याचिका है, जिसके माध्यम से पीड़ित व्यक्ति, कोई अन्य व्यक्ति या संस्था पीड़ित की ओर से न्यायालय के समक्ष प्रश्न उठाता है। जनहित याचिका की इस प्रणाली ने भारत में पूर्व प्रचलित Locus Standi (केवल प्रभावित व्यक्ति ही न्याय पाने के अधिकार हेतु अपील कर सकता है) को बदल दिया। अब स्वतः संज्ञान के माध्यम से भी (न्यायालय द्वारा मीडिया रिपोर्टों, सोशल साइट्स आदि को आधार बनाकर) कार्रवाई की जाती है। पी.एन. भगवती (पूर्व मुख्य | न्यायाधीश सर्वोच्च न्यायालय) को भारत में जनहित याचिकाओं का जनक माना जाता है।

न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism)

न्यायपालिका (Judiciary)  द्वारा अपने परंपरागत न्यायिक भूमिका का अतिक्रमण कर विधायिका और कार्यपालिका के कार्यों में दखल देना।

 

अधीनस्थ न्यायालयों पर नियंत्रण की शक्ति

  • अनुच्छेद 235 में उच्च न्यायालयों को अपने राज्य क्षेत्र के भीतर स्थित अधीनस्थ न्यायालयों, जिनमें जिला न्यायालय तथा उनसे नीचे के न्यायालय शामिल हैं, पर नियंत्रण की विस्तृत शक्तियाँ दी गई हैं।
  • इन शक्तियों में न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश करना, उनके स्थानांतरण, प्रोन्नति या निलंबन का आदेश देना, उनकी वरिष्ठता कम करने या अनिवार्य सेवानिवृत्ति की सिफारिश देने जैसी शक्तियाँ शामिल हैं।

उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता

  • उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन तथा सभी प्रशासनिक खर्चों को अनुच्छेद 229(3) के तहत संबंधित राज्य की संचित निधि पर भारित व्यय घोषित किया गया है।
  • संविधान के अनुच्छेद 220 के तहत उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिये नियम है कि वे सेवानिवृत्ति के बाद सर्वोच्च न्यायालय तथा अन्य उच्च न्यायालयों के अलावा भारत के किसी भी न्यायालय या अधिकरण में वकालत नहीं कर सकते।
  • अनुच्छेद 229 के अंतर्गत प्रत्येक उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायमूर्ति को शक्ति दी गई है कि वह न्यायालय के अधिकारियों व सेवकों की नियुक्ति व सेवा शर्ते निर्धारित कर सके।

अधीनस्थ न्यायालया (Subordinate Courts)

  • उच्च न्यायालय के नीचे के सोपानक्रम पर स्थित सभी न्यायालयों को ‘निम्नतर न्यायालय’ या ‘अधीनस्थ न्यायालय’ कहा जाता है।
  • संविधान के भाग-VI के अध्याय 6 का शीर्षक है- ‘अधीनस्थ न्यायालय’। इसके अंतर्गत अनुच्छेद 233-237 शामिल हैं।

अधिकरण (Tribunals)

  • ‘अधिकरण’ या ‘न्यायाधिकरण’ न्यायालयों से मिलते-जुलते निकाय हैं, जो न्यायनिर्णयन (Adjudication) करते हैं।
  • सामान्यतः अधिकरण किसी विशेष विभाग से जुड़ी शिकायतों तथा अर्द्ध-न्यायिक विवादों (Quasi-judicial Disputes) का समाधान करने के लिये बनाए जाते हैं।
  • सभी न्यायालय अधिकरण होते हैं, क्योंकि उनके पास अधिकरणों को प्राप्त सभी शक्तियाँ होती हैं, किंतु सभी अधिकरण न्यायालय नहीं होते।

संवैधानिक प्रावधान

  •  मूल संविधान में अधिकरणों से संबंधित कोई प्रावधान नहीं था।
  • ’42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976′ के द्वारा संविधान में ‘अधिकरण’ नाम से एक नया भाग XIVक जोड़ा गया, जिसमें दो अनुच्छेद 323क तथा 323ख शामिल किये गए। अनुच्छेद-323क का संबंध प्रशासनिक अधिकरणों’ (Administrative Tribunals) से संबंधित अधिकरणों से है, जबकि 323ख का संबंध अन्य विषयों से है।

न्यायपालिका (Judiciary) में नवाचार

लोक अदालत

  • इसका अर्थ है लोगों का न्यायालय। यह एक ऐसा मंच है, जहाँ विवादों को आपसी सहमति से या दोनों पक्षों में समझौता कराकर उसे डिक्री घोषित कर दिया जाता है। इसे सिविल अदालत की मान्यता प्राप्त है, लेकिन शमनीय प्रवृत्ति के आपराधिक मामले का भी निराकरण किया जा सकता है। इसकी अध्यक्षता एक न्यायाधीश (प्राय: सेवानिवृत्त) करता है और कोई कोर्ट फीस नहीं होती है। लोक अदालत द्वारा दिया गया प्रत्येक न्याय निर्णय अंतिम होगा व अनुच्छेद 226 के तहत भी उच्च न्यायालय में इसके फैसले के खिलाफ अपील नहीं की जा सकती।

परिवार न्यायालय (1984)

  • राज्य सरकारों द्वारा उच्च न्यायालयों से सलाह लेकर 10 लाख से अधिक आबादी वाले शहरों में पारिवारिक विवादों (तलाक, पारिवारिक झगड़े, नाबालिक बच्चों के संरक्षण) के निपटान के लिये इनकी स्थापना की जा सकती है।

ग्राम न्यायालय

  • 2 अक्तूबर, 2009 से कार्यरत ग्राम न्यायालयों के अंतर्गत 2 वर्षों तक की अधिकतम सज़ा वाले आपराधिक व अन्य सिविल मामलों का निपटारा होता है। ग्राम न्यायालय में प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट स्तर के न्यायाधीश की नियुक्ति राज्य सरकार उच्च न्यायालय के परामर्श से करती है।

मोबाइल कोर्ट

  • मोबाइल कोर्ट एक वाहन के भीतर कार्य करता है। वाहन के भीतर न्यायालय का आवश्यक ढाँचा उपलब्ध होता है।
  • इसे ‘पहियों पर न्याय’ (Justice on Wheels) भी कहा जाता है। वर्ष 2007 मेवात (हरियाणा) में प्रथम मोबाइल कोर्ट की स्थापना हुई।
  • मोबाइल कोर्ट की अवधारणा का विचार राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने दिया था।

फास्ट ट्रैक कोर्ट

  • 11वें वित्त आयोग की सिफारिश पर लंबित मामले विशेषतः आपराधिक प्रकृति के लंबित मामलों को तेजी से निपटाने के लिये इनका गठन किया गया है।

ई-अदालत तथा आभासी अदालतें

  • ई-अदालत की अवधारणा अत्यंत व्यापक है। जिसमें तकनीकी सेवाएँ वीडियों कॉन्फ्रेसिंग द्वारा न्याय दूरस्थ न्याय (telejustice) व अन्य सेवाएँ शामिल हैं।

हरित अधिकरण

  • राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम, 2010 के द्वारा पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं के निराकरण हेतु इसका गठन किया गया है।
  • इसका मुख्यालय नई दिल्ली में है तथा भोपाल, पुणे, कोलकाता और चेन्नई में सहयोगात्मक पीठें हैं।

दलील सौदेबाजी/प्ली बार्गेनिंग

  • दलील सौदेबाजी’ के तहत किसी आपराधिक मामले का अभियुक्त इस शर्त पर अपना अपराध कबूल कर लेता है कि उसे निर्धारित से कम सजा दी जाएगी। यह समझौता बचाव पक्ष और अभियोजन पक्ष के बीच में होता है।

Leave a comment