जैविक समुदाय का वर्गीकरण

जैविक समुदाय का वर्गीकरण

  • जैव समुदाय के अध्ययन के लिये हमें जीवधारियों को कुछ समूहों में वर्गीकृत करना पड़ता है ताकि समान गुणों एवं संरचना वाले जीवों का अध्ययन एक साथ किया जा सके।
  •  जीव विज्ञान के सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध विकास में अरस्तू के महत्त्वपूर्ण योगदान को देखते हुए उन्हें ‘जीव विज्ञान का पिता’ कहा जाता है।
  •  जीवों के आधुनिक वर्गीकरण की शुरुआत कैरोलस लीनियस (Carolus Linnaeus) के द्विजगत-सिद्धांत (Two Kingdom Classification) से होती है।
  • उन्होंने जीवों को जंतु जगत (Kingdom Animal) और पादप जगत (Kingdom-Plantae) में बाँटा।
  • इसीलिये लीनियस को वर्गिकी का पिता (Father of Taxonomy) कहा जाता है।
  • लीनियस ने ही जीवों के नामकरण की द्विनाम पद्धति विकसित की थी, जिसके अंतर्गत प्रत्येक जीव के नाम के दो भाग होते हैं।
  • पहला भाग उसके वंश (Genera) का द्योतक होता है जबकि दूसरा उसकी जाति (Species) का।
  • जैसे मानव का वैज्ञानिक नाम होमो सेपियंस है जहाँ होमो (Homo) वंश है, जबकि सेपियंस (Sapiens) जाति।
  • आधुनिक जीव विज्ञान में सर्वाधिक मान्यता व्हिटेकर (R.H. Whittaker) के ‘पाँच जगत वर्गीकरण’ को दी जाती है। उन्होंने जीवों को जगत (Kingdom) नामक पाँच बड़े वर्गों में बाँटा। ये पाँच जगत हैं 1. मोनेरा 2. प्रोटिस्टा 3. कवक 4. पादप 5. जंतु

मोनेरा (Monera)

  • यह एककोशिकीय प्रोकैरियोटिक जीवों का समूह है अर्थात् इनमें न तो संगठित केंद्रक होता है और न ही विकसित कोशिकांग होते हैं। इनमें से कुछ में कोशिका भित्ति पाई जाती है तथा कुछ में नहीं। पोषण के स्तर पर ये स्वपोषी अथवा विषमपोषी दोनों हो सकते हैं।
  • उदाहरणार्थ: जीवाणु यथा नील हरित शैवाल अथवा सायनो बैक्टीरिया, माइकोप्लाज़्मा आदि।

प्रोटिस्टा (Protista)

  • इनमें एककोशिकीय यूकैरियोटिक जीव आते हैं।
  • हालाँकि कभी-कभी ये बहुकोशिकीय भी होते हैं, यथा-केल्प या समुद्री घास।
  • प्रोटिस्टा जगत पादप, जंतु एवं कवक जगत के बीच कड़ी का कार्य करता है।
  • इस वर्ग के कुछ जीवों में गमन के लिये सीलिया, फ्लैजेला नामक संरचनाएँ भी पाई जाती हैं।
  • ये स्वपोषी और विषमपोषी दोनों तरह के होते हैं।
  • उदाहरणार्थ-एककोशिकीय शैवाल, डायटम, प्रोटोजोआ, यूग्लीना, पैरामीशियम, क्लोरेला, अमीबा आदि इसी जगत के सदस्य हैं।

कवक(Fungi)

fungi

  • ये विषमपोषी यूकैरियोटिक जीव हैं।
  • ये पोषण के लिये सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों पर निर्भर रहते हैं, अत: इन्हें मृतजीवी भी कह दिया जाता है।
  • इनमें से कई अपने जीवन की एक विशेष अवस्था बहुकोशिकीय क्षमता प्राप्त कर लेते हैं।
  • इन कवकों में काइटिन (Chitin) नामक जटिल शर्करा की बनी हुई कोशिका भित्ति पाई जाती है।
  • यीस्ट, पेंसीलियम, मशरूम आदि इसी जगत के सदस्य हैं।

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सूक्ष्म जीव (Microorganism)

संरचना के आधार पर सूक्ष्म जीवों का वर्गीकरण-

सबसेलुलर (Subcellular)
  • इस प्रकार के संरचना में DNA या RNA एक प्रोटीन आवरण द्वारा घिरा हुआ होता है।
  • जैसे-विषाणु (Viruses)। विषाणु सूक्ष्म आकार के होते है परंतु ये अपना पोषण स्वयं नहीं करते।
  • इसके लिये इन्हें परपोषी की आवश्यकता होती है।
  • ये जीवाणु, पौधों एवं जीवों मे गुणन कर वृद्धि कर सकते हैं।
  • इन्हें निर्जीव एवं सजीव के बीच की कड़ी भी कहा जाता है।
  • वायरस की खोज रूसी वैज्ञानिक दमित्री इवानविस्की ने 1892 में तंबाकू में मौजेक रोग की खोज के दौरान की थी।
  • कुछ सामान्य रोग जैसे- जुकाम, फ्लू, खाँसी आदि विषाणुओं के द्वारा होते है।
  • पोलियो और खसरा जैसी खतरनाक बीमारियाँ भी वायरस के कारण होती हैं।
प्रोकैरियोटिक (Prokaryotic)
  • इनकी कोशिका संरचना साधारण होती है जिसमें केंद्रक एवं उपांग (Organelles) उपस्थित नहीं होते जैसे कि- जीवाणु (Bacteria)।
  • यह प्रोकैरियाटिक एक कोशकीय सरल जीव है।
  • ये मोनेरा जगत के अंदर वगीकृत किये गए हैं।
  • कुछ बैक्टीरिया, जैसे- नॉस्टॉक एवं एनाबिना पर्यावरण के नाइट्रोजन का स्थिरीकरण कर सकते हैं।
  • ये नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, आयरन एवं सल्फर जैसे पोषकों के पुनर्चक्रण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
यूकैरियोटिक (Eukaryotic) :
  • इनकी कोशिका संरचना जटिल होती है जिसमें केंद्रक एवं विशेषीकृत उपांग उपस्थित होते हैं, जैसे कि- प्रोटोजोआ, कवक, शैवाल आदि।
  • अधिकांश कवक परपोषित मृतजीवी होते हैं।
  • इनमें जनन कायिक खंडन, विखंडन तथा मुकुलन द्वारा होता है।
  • इनका उपयोग ब्रेड, बीयर इत्यादि बनाने में किया जाता है।
  • कुछ कवक मानव स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हैं।
  • गंजापन, दमा एवं दाद-खाज का एक प्रमुख कारण कवक है।
  • इसके अलावा फसलों के कई रोग कवक द्वारा फैलते हैं जैसे गेहूँ का रस्ट रोग।
  • खमीर और मशरूम भी कवक हैं।
  • सभी प्रोटोजोआ परपोषी होते हैं और प्रायः परजीवी के रूप में अन्य जीवों पर निर्भर रहते हैं।
  • ट्रिपैनोसोमा नामक निद्रा रोग का कारण भी प्रोटोजोआ ही हैं।
  • साथ ही मलेरिया, पेचिस जैसे रोग भी प्रोटोजोआ के कारण होते हैं।

सर्दी-जुकाम तथा फ्लू में एंटीबायोटिक दवाएँ प्रभावशाली नहीं होतीं में क्योंकि ये रोग विषाणुओं द्वारा फैलते हैं।

पादप (Plantae)

  • यह कोशिका भित्ति वाले बहुकोशिकीय यूकैरियोटिक जीवों का है।
  • ये स्वपोषी होते हैं और प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया द्वारा स्वयं का समूह भोजन बनाते हैं।
  • अत: क्लोरोफिल धारक सभी पौधे इस वर्ग के सदस्य हैं।
  • पादपों को निम्न उपवर्गों में बाँटा जा सकता है
थैलोफाइटा (Thallophyta)
  • इन पौधों के शरीर के सभी घटक पूर्णरूपेण विभेदित नहीं होते अर्थात् इनकी संरचना मूल तना तथा पत्तियों में विभाजित नहीं होती है।
  • इस वर्ग के पौधों को सामान्यतया शैवाल (Algae) कहा जाता है।
  • ये मुख्यत: जलीय पादप होते हैं, जैसे- यूलोथ्रिक्स, स्पाइरोगाइरा, कारा इत्यादि।
ब्रायोफाइटा (Bryophyta)
  • इस वर्ग के पादपों में जल एवं अन्य चीज़ों का शरीर के एक भाग से दूसरे भाग में संवहन के लिये विशिष्ट संवहनी ऊतक नहीं पाए जाते।
  • ये पादप तना और पत्तों जैसी संरचना में विभाजित होते है।
  • इस वर्ग के पौधों को ‘पादप वर्ग का उभयचर’ भी कहा जाता है।
  • उदाहरण के लिये मॉस (फ्यूनेरिया), मार्केशिया आदि।
टेरिडोफाइटा (Pteridophyta)
  • इन पौधों का शरीर जड़, तना तथा पत्ती में विभाजित होता है।
  • इनमें संवहन ऊतक भी उपस्थित होते हैं।
  • उदाहरणार्थ- फर्न, मार्सीलिया, हार्स टेल इत्यादि
  • उपर्युक्त तीनों वर्गों के पादपों में जननांग अप्रत्यक्ष होते हैं तथा इनमें बीज उत्पन्न करने की क्षमता नहीं होती।
जिम्नोस्पर्म (Gymnosperm)
  • ये पौधे नग्नबीजी होते हैं अर्थात् इनके बीज फलों के अंदर नहीं होते।
  • ये पौधे बहुवर्षी, सदाबहार तथा काष्ठीय होते हैं, जैसे- पाइनस तथा साइकस।
एंजियोस्पर्म (Angiosperm)
  • इन पौधों के बीज फलों के अंदर बंद रहते हैं।
  • इनके बीजों का विकास अंडाशय के अंदर होता है जो बाद में फल बन जाते हैं।
  • इन्हें पुष्पी पादप भी कहा जाता है।
  • बीजपत्रों की संख्या के आधार पर एंजियोस्पर्म वर्ग को दो भागों में बाँटा जाता है- एकबीजपत्री जिनमें एक बीजपत्र होता है तथा द्विबीजपत्री जिनमें दो बीजपत्र होते हैं।

जंतु (Animalia)

  • यह यूकैरियोटिक, बहुकोशिकीय, विषमपोषी प्राणियों का वर्ग है।
  • ये बगैर कोशिका भित्ति वाली कोशिकाओं से बना जीवधारी वर्ग है।
  • शारीरिक संरचना एवं अंगों के बीच विभेदीकरण के आधार पर इनको अन्य कई संघों (Phyla) में विभाजित किया जाता है:
पोरीफेरा (Porifera)
  • ये अत्यंत सरल शारीरिक संरचना वाले छिद्रयुक्त जीवधारी हैं।
  • ये अचल जीव हैं जो किसी आधार से चिपके रहते हैं। इनमें ऊतकों का विभेदन नहीं होता।
  • इन जीवों को सामान्यतः स्पंज के नाम से जाना जाता है जो प्रायः समुद्री आवासों में पाए जाते हैं।
  • इनके पूरे शरीर में अनेक छिद्र पाए जाते हैं तथा शरीर एक कठोर आवरण अथवा बाह्य कंकाल से ढँका होता है।
  • उदाहरणार्थ- साइकॉन, स्पांजिला इत्यादि ।
सीलेंटरेटा या निडेरिया (Coelenterata or Cnidaria)
  • ये जलीय जंतु हैं जिनका शरीर कोशिकाओं की दो परतों (आंतरिक एवं बाह्य) का बना होता है।
  • इनका शारीरिक संगठन ऊतकीय स्तर का होता है तथा इनमें एक देहगुहा पाई जाती है।
  • उल्लेखनीय है कि इसकी कुछ जातियाँ समूह में रहती हैं (जैसे कोरल) जबकि कुछ जातियाँ एकांकी रहती हैं (जैसे हाइड्रा)।
  • सीलेंटरेटा के उदाहरण हैं- हाइड्रा, समुद्री एनीमोन, जेलीफिश, कोरल इत्यादि ।
प्लेटीहेल्मिन्थीज (Platyhelminthes)
  • इन जीवों की शारीरिक संरचना पहले दोनों संघों की अपेक्षा कुछ जटिल होती है।
  • इनका शरीर त्रिस्तरीय (Triploblastic) होता है अर्थात् इनका ऊतक विभेदन तीन कोशिकीय स्तरों में हुआ है।
  • इससे शरीर में बाह्य तथा आंतरिक दोनों प्रकार के स्तर बनते हैं तथा कुछ अंगों का भी विकास संभव होता है।
  • लेकिन इनमें वास्तविक देहगुहा (True Body Coelom) नहीं होती जिसमें वे सुविकसित अंग व्यवस्थित हो सकें।
  • इनका शरीर द्विपार्श्वसममित होता है अर्थात् शरीर के दाएँ और बाएँ भाग की संरचना समान होती है।
  • इन जीवों को चपटे कृमि भी कहा जाता है क्योंकि इनका शरीर पृष्ठधारीय एवं चपटा होता है।
  • इस वर्ग के उदाहरणों में फीता कृमि, लिवरफ्लूक जैसे परजीवी एवं प्लेनेरिया जैसे स्वच्छंद जीव शामिल हैं।
निमेटोडा या ऐस्केलमिंथीज (Nematoda or Aschelminthes)
  • ये भी द्विपार्श्वसममित शरीर वाले त्रिस्तरीय जीव हैं लेकिन इनका शरीर चपटा न होकर बेलनाकार होता है।
  • इनमें ऊतक पाए जाते हैं लेकिन अंगतंत्र पूर्ण विकसित नहीं होते।
  • ये अधिकांशतः परजीवी होते हैं तथा परजीवी के तौर पर दूसरे जंतुओं में रोग उत्पन्न करते हैं।
  • उदाहरणार्थ पिन कृमि, गोल कृमि, फाइलेरिया कृमि इत्यादि ।
एनीलिडा (Annelida)
  • ये वास्तविक देहगुहा वाले द्विपार्श्वसममित एवं त्रिस्तरीय जीव हैं,
  • अत: इनमें विकसित एवं विभेदित अंग होते हैं जो शारीरिक संरचना में निहित रहते हैं।
  • इनमें संवहन, पाचन, उत्सर्जन एवं तंत्रिका तंत्र उपस्थित होते हैं।
  • ये जलीय और स्थलीय दोनों होते हैं।
  • जलीय एनीलिडा लवणीय और अलवणीय जल दोनों में पाए जाते हैं।
  • उदाहरणार्थ-केंचुआ, जोंक आदि।
आर्थोपोडा (Arthropoda)

Arthropoda

  • यह जंतु जगत का सबसे बड़ा संघ है।
  • इनका शरीर द्विपार्श्व-सममित (Bilaterally Symmetrical) होता है।
  • लेकिन शरीर खंडयुक्त होता है। इस संघ का सबसे बड़ा वर्ग कीट वर्ग (Insecta) है।
  • इनमें खुला परिसंचरण तंत्र (Open Blood Circulatory System) पाया जाता है।
  • अतः रुधिर वाहिकाओं में नहीं बहता बल्कि देहगुहा ही रक्त से भरी होती है। इनमें जुड़े हुए पैर पाए जाते हैं।
  • उदाहरणार्थ- झींगा, तितली, मकड़ी, मक्खी, बिच्छू, केकड़े, मच्छर, तिलचट्टा, मधुमक्खी, रेशम का कीड़ा, कनखजूरा आदि।
मोलस्का (Mollusca)
  • इस वर्ग के जीवधारी भी द्विपार्श्वसममित होते हैं।
  • इस वर्ग के अधिकांश जंतुओं के शरीर पर कवच पाया जाता है।
  • इनकी देहगुहा बहुत कम होती है तथा शरीर में थोड़ा विखंडन होता है।
  • इनमें खुला संवहनी तंत्र तथा उत्सर्जन के लिये गुर्दे जैसी संरचना पाई जाती है।
  • उदाहरणार्थ घोंघा, सीप, ऑक्टोपस इत्यादि ।
इकाइनोडर्मेटा (Echinodermata)
  • इस वर्ग के जंतुओं की त्वचा पर काँटे होते हैं।
  • ये काँटे तथा कंकाल तंत्र, कैल्सियम कार्बोनेट से बने होते हैं।
  • ये मुक्तजीवी समुद्री जंतु हैं तथा देहगुहायुक्त त्रिस्तरीय जंतु हैं।
  • इनमें विशिष्ट जल संवहन नालतंत्र पाया जाता है जो उनकी गति में सहायक होता है।
  • स्टारफिश, समुद्री अर्चिन आदि इस वर्ग के उदाहरण हैं।
कॉर्डेटा (Chordata)
  • इसके अंतर्गत उन जंतुओं को रखा जाता है जिनके जीवन चक्र की किसी-न-किसी अवस्था में एक पृष्ठ रज्जु (Notochord) एवं खोखली पृष्ठ तंत्रिका रज्जु (Dorsal Tubular Nerve Cord) पाई जाती है।
  • सभी कार्डेट्स द्धिपार्श्वसममित, त्रिकोरिकी एवं देहगुहायुक्त होते हैं।
  • इनमें पूर्ण विकसित एवं बंद प्रकार का रक्त परिसंचरण तंत्र पाया जाता है।
  • इनमें पूर्ण विकसित मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र पाया जाता है।
  • उदाहरण- बैलेनोग्लोसस (टंग वर्म)
वर्टीब्रेटा (Vertebrata) (कशेरुकी)
  • यह सर्वाधिक विकसित जंतुओं का वर्ग है।
  • इन जंतुओं में वास्तविक मेरूदंड एवं अंतः कंकाल पाया जाता है, इस कारण जंतुओं में पेशियों का वितरण अलग होता है एवं पेशियाँ कंकाल से जुड़ी होती हैं जो इन्हें चलने में सहायता करती हैं।
  • इस समूह के जीवों में देहगुहा, नोटोकार्ड, पृष्ठनलीय कशेरुक दंड एवं मेरुरज्जु अवश्य पाए जाते हैं।
  • इनका शरीर भी त्रिस्तरीय और द्विपार्श्वसममित होता है।
  • इस वर्टीब्रेटा या कशेरुकी समूह को पाँच उपसमूहों में विभाजित किया जाता है
  1. मत्स्य (Pisces or Fishes) : जैसे- शार्क, रोहू, ट्यूना, समुद्री घोड़ा, कैट फिश आदि।
  2. उभयचर (Amphibia) : जैसे- टोड, मेंढक इत्यादि।
  3. सरीसृप (Reptiles) : जैसे- कछुआ, साँप, छिपकली, मगरमच्छ आदि।
  4. पक्षी (Aves or Birds) : जैसे- कबूतर, गौरैया, ऑस्ट्रिच आदि।
  5. स्तनधारी (Mammals) : जैसे-कंगारू, मनुष्य, चमगादड़, ब्लूव्हेल आदि। एकिडना, प्लैटिपस आदि इन सबसे भिन्न अंडे देने वाले स्तनधारी है।

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