भारत में अब जजों की नियुक्ति कैसे होगी ?

भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना का कार्यकाल लगभग समाप्त होने वाला है, इसके अलावा भारत के नए मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की प्रक्रिया लगभग समाप्त हो गई है । एन.वी. रमना का कार्यकाल भारत में कॉलेजियम सिस्टम के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण है।

जजों की नियुक्ति

सुर्ख़ियों में क्यों है भारत में जजों की नियुक्ति ?

कॉलेजियम सिस्टम भारत में जजों की नियुक्ति को लेकर चर्चा का विषय बना हुआ है। क्या अब कॉलेजियम सिस्टम खत्म कर दिया जायेगा ?

कॉलेजियम प्रणाली क्या है?

भारत में कॉलेजियम प्रणाली जजों की नियुक्ति और उनके तबादले से संबंधित है इस प्रणाली की खास बात यह है कि इसका जिक्र भारतीय संविधान में भी नहीं है और ना ही किसी भारतीय कानून में है।

इस प्रणाली का विकास कैसे हुआ?

इस प्रणाली का विकास सुप्रीम कोर्ट के निर्णयों के माध्यम से हुआ है, भारत में इस प्रणाली को जजों द्वारा जजों की नियुक्ति वाली प्रणाली के तौर पर देखा जाता है । इस प्रणाली के माध्यम से जजों द्वारा जजों की नियुक्ति ही नहीं बल्कि जजों के तबादले भी जजों के द्वारा ही यह जाते हैं । सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम की अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश(CJI) करते हैं, इसके अलावा इसमें 4 वरिष्ठतम न्यायाधीश भी शामिल होते हैं।

कॉलेजियम प्रणाली का इतिहास एवं विकास–

हमने पहले ही देखा कि इसका जिक्र ना ही भारतीय संविधान में है और ना ही किसी कानून में बल्कि इस प्रणाली की उत्पत्ति न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच दशकों तक चले संघर्ष के कारण हुई है । यह संघर्ष 1970 के दशक में अपने चरम पर था । यह वही समय था जब कोर्ट की संरचना में बदलाव की घटनाएं सामने आई थी ,जिसे कोर्ट पैकिंग के नाम से जाना जाता है । इसी दशक में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का सामूहिक तबादला किया गया था ।

इसी दशक में 1973 में भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति का विवाद भी सामने आया था। 24 अप्रैल 1973 को सर्वोच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया था ,यह निर्णय केसवानंद भारती विवाद के दौरान दिया गया था, इस निर्णय के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत दिया था । यह निर्णय सर्वोच्च न्यायालय के 13 न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने दिया था, यह निर्णय 7:6 में दिया गया था। इसमें से 7 न्यायाधीश इसके पक्ष में थे और 6 इसके विपक्ष में थे ,6 न्यायाधीश जो इसके विपक्ष में थे, उनमें से एक थे जस्टिस ए. एन. रॉय।

जस्टिस ए.एन.रॉय को इस निर्णय के एक दिन बाद ही 25 अप्रैल 1973 को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया गया और इसी वजह से यह पूरा विवाद शुरू हुआ ।क्योंकि CJI सबसे वरिष्ठतम जज को ही नियुक्त किया जाता है। ए. एन. रॉय सबसे वरिष्ठ नहीं थे, बल्कि उनसे वरिष्ठ तीन अन्य जज थे । 1973 में इस विवाद में कार्यपालिका द्वारा न्यायपालिका की प्रणाली में हस्तक्षेप करने की कोशिश की गई थी । इसके बाद जजों की नियुक्ति के लिए एक व्यवस्थित प्रणाली की आवश्यकता महसूस की गई ।

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फर्स्ट जज केस (1981) –

1981 में फर्स्ट जज के सामने आया, इस केस को आधिकारिक रूप से एस.पी.गुप्ता केस के नाम से जाना जाता है । भारतीय संविधान में जजों की नियुक्ति के लिए ‘परामर्श’ की प्रक्रिया अपनाई गई, नियुक्ति के लिए ‘परामर्श’ शब्द का उपयोग किया गया इस पूरे निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि परामर्श शब्द की व्याख्या सहमत के तौर पर नहीं की जा सकती है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए CJI की राय सरकार के लिए बाध्यकारी नहीं हैं, इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका को अधिक प्राथमिकता देने की कोशिश की थी और जो CJI की भूमिका थी वह केवल परामर्श तक ही सीमित है, यह व्यवस्था लगभग 12 वर्ष तक बनी रही।

सेकंड जज केस (1993) –

इस केस में 9 जजों की बेंच ने एसपी गुप्ता केस के निर्णय को खारिज कर दिया । न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति और तबादले के लिए ‘कॉलेजियम प्रणाली’ की शुरुआत की गई। यह निर्णय लिया गया कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अखंडता की रक्षा स्वयं अदालतों का काम है। नियुक्ति और तबादले में CJI को प्राथमिकता दी गई, परामर्श शब्द न्यायिक नियुक्त में CJI की प्राथमिकता को कम नहीं करता, इस प्रकार कॉलेजियम प्रणाली की शुरुआत की गई ।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति के लिए CJI अपने दो वरिष्ठतम सहयोगी से परामर्श लेगा फिर सरकार से नियुक्त के लिए सिफारिश करेगा और इस सिफारिश को कार्यपालिका द्वारा माना जाएगा, कार्यपालिका द्वारा सिफारिश को पुनर्विचार के लिए भेजा जा सकता है ,पर उसी सिफारिश को दोबारा भेजा जाता है तो अंततः सिफारिश को मानना आवश्यक है।

थर्ड जज केस (1998) –

राष्ट्रपति के आर नारायण ने संविधान के अनुच्छेद 143 (सलाहकार क्षेत्राधिकार) के तहत ‘परामर्श’ शब्द के अर्थ पर सुप्रीम कोर्ट से सुझाव मांगा– सवाल – क्या केवल CJI की एकमात्र राय परामर्श के तहत आएगी या कई न्यायधीशो की आवश्यकता है ? इस पूरे निर्णय के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कुछ दिशा निर्देश दिए थे और इन्हीं दिशानिर्देशों के माध्यम से भारत में मौजूदा प्रणाली विकसित हुई।

कॉलेजियम – CJI (अध्यक्ष) + 4 वरिष्ठतम जज

यदि दो जज अलग-अलग राय रखते हैं तो सिफारिश नहीं भेजी जाएगी।

भारत में जज बनने के लिए क्या योग्यता होनी चाहिए?

उम्मीदवार के पास लॉ की बैचलर डिग्री होनी चाहिए। वह भारत का नागरिक होना चाहिए। इसके साथ ही 10 बर्ष तक वह न्यायिक पर कार्य करने का अनुभव हो। अथवा किसी भी हाई कोर्ट में 10 बर्ष वकालत करने का अनुभव होना चाहिए।

भारत में जजों की नियुक्ति कौन करता है ?

अनुच्छेद 124 (2) के तहत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति करता है और अनुच्छेद 217 के तहत राष्ट्रपति हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति करता है ।

मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति(CJI) कैसे होती है ?

निवर्तमान सीजीआई अपने उत्तराधिकारी की सिफारिश करता है। हमेशा से इस सिद्धांत का पालन किया जाता रहा है, सिफारिश हमेशा सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठतम न्यायाधीश की करते हैं (इस सिद्धांत का उल्लंघन 1970 के दशक में देखने को मिला था)।

सिफारिश : CJI – कानून मंत्री – प्रधानमंत्री – राष्ट्रपति और राष्ट्रपति अनुच्छेद 124 (2) के तहत नियुक्ति करता है।

उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कैसे होती है 

राष्ट्रपति द्वारा CJI (सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम) और संबंधित राज्य के गवर्नर से परामर्श करते हैं, इसके बाद राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 217 के माध्यम से नियुक्त किया जाता है।उम्मीदवार का जैन संबंधित राज्य के बाहर से किया जाता है ,अर्थात उम्मीदवार अपने राज्य का मुख्य नयायाधीश नहीं बन सकता है।

हाई कोर्ट जज की नियुक्ति कैसे होती है? 

राष्ट्रपति द्वारा परामर्श किया जाता है, हाई कोर्ट कॉलेजियम, सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम और संबंधित राज्य के राज्यपाल से और अंततः राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 217 के तहत नियुक्ति की जाती है।

कॉलेजियम प्रणाली के पक्ष में तर्क –

कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से न्यायपालिका में कार्यपालिका और विधायिका का हस्तक्षेप समाप्त हो जाता है।कॉलेजियम व्यवस्था न्यायपालिका को राजनीति से स्वतंत्र बनाती है ,जिससे न्यायपालिका निष्पक्ष तौर पर काम कर सकती है।इस प्रणाली के माध्यम से शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का पालन भी सुनिश्चित होता है।क्योंकि सरकार कि कोई भी शाखा एक दूसरे में हस्तक्षेप नहीं करती है ।सुप्रीम कोर्ट के जज इस दबाव में काम करते हैं कि उनका तबादला किसी खराब जगह कर दिया जाएगा, इसी दबाव में सरकार के खिलाफ कोई निर्णय भी नहीं दे पाते। इस व्यवस्था से यह दबाव समाप्त हो जाता है।कार्यपालिका कानूनी मामलों में विशेषज्ञ नहीं होती है, परंतु न्यायपालिका इसे बेहतर ढंग से समझती है ।

कॉलेजियम प्रणाली के विपक्ष में तर्क

भाई – भतीजावाद और पक्षपात का खतरा है ।योग्य उम्मीदवार की नियुक्ति नहीं हो पाती है । न्यायपालिका में पहले से मौजूद लोगों के संबंधित की ही सिफारिश की जाती है ।इसके साथ न्यायपालिका में पहले से कई मामले लंबित हैं ऐसे में अगर नियुक्त का कार्य भी न्यायपालिका को दे दिया जाएगा तो उस पर अतिरिक्त भार हो जाएगा । इससे न्याय प्रणाली में गैर पारदर्शिता बढ़ती है ।

निष्कर्ष–

  • न्यायिक रिक्तियों को भरना सरकार की सभी शाखाओं का दायित्व है ।
  • न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया को तेज करना चाहिए।
  • न्यायपालिका और कार्यपालिका दोनों को राष्ट्रीय और जनहित को ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए।

परीक्षा दृष्टि प्रश्न :

प्रश्न: सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश के पद पर सर्वाधिक लम्बी अवधी तक कौन पदस्थ रहा ? 

उत्तर:  व्हाई.वी. चंद्रचूड़

प्रश्न: सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश के पद पर सबसे कम समय तक कौन आसीन रहा ? 

उत्तर: एस.एस. सीकरी

प्रश्न: सर्वोच्च न्यायालय के किस मुख्य न्यायधीश ने 20 जुलाई 1969 से 20 अगस्त 1969 तक कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य किया ?

उत्तर: एच . एम. हिदायतुल्ला ने 

प्रश्न: उच्चतम न्यायलय की सबसे पहली महिला न्यायधीश कौन थी ?

उत्तर: फातिमा बीबी

प्रश्न: भारत में उच्च न्यायलय की मुख्य न्यायधीश बनने वाली पहली महिला न्यायधीश कौन थी ?

उत्तर: लीला सेठ 

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